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आर्थिक असुरक्षा और जन आक्रोश: चीन जैसा दिखता है, वैसा है नहीं

हेलेन गाओ, द न्यूयॉर्क टाइम्स Published by: लव गौर Updated Tue, 02 Dec 2025 06:27 AM IST
सार
आर्थिक असुरक्षा की भावना लोगों को शादी तथा परिवार बनाने से रोक रही है, जिससे जनसंख्या में गिरावट और भी बढ़ रही है। अमीर व गरीब के बीच बढ़ती खाई से जन आक्रोश भी बढ़ रहा है। जनता का आक्रोश उन लोगों के खिलाफ बढ़ रहा है, जो आर्थिक या राजनीतिक संबंधों को अवसरों में बदल रहे हैं।
 
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Economic insecurity and public anger: China is not what it seems
(सांकेतिक तस्वीर ) - फोटो : एडॉब स्टॉक

विस्तार
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हर सोमवार सुबह, सड़क के उस पार स्थित प्राथमिक विद्यालय से चीन के राष्ट्रगान की मधुर धुनें मेरे बीजिंग के अपार्टमेंट में गूंजती हैं। आसपास की सड़कों पर फूलों के गमले, पेड़ और नागरिकों को अपने देश से प्रेम का आह्वान करने वाले बोर्ड लगे हैं। मेरे जीवन के ज्यादातर समय तक वह निर्देश मुझे बेमानी लगता रहा। फिर चीन की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ी, और हमें अपने देश पर गर्व हुआ। आज हममें से कई लोगों के लिए उस गर्व को जगाना मुश्किल हो गया है। रोजमर्रा की जिंदगी में एक खामोश हताशा सुलगती रहती है। सोशल मीडिया और निजी बातचीत में, यह आम चर्चा सुनने को मिलती है-बेरोजगारी, वेतन में कटौती और गुजारा करने की चिंता। चीनी लोग आज एक अजीब विरोधाभास में जी रहे हैं।


वैश्विक स्तर पर चीन मजबूत नजर आता है। दुनिया को आकार देने की ताकत के मामले में यह अमेरिका का एकमात्र प्रतिद्वंद्वी है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हाल ही में हुई बैठक में दोनों नेताओं ने व्यापार युद्ध विराम की घोषणा की। इसने इस धारणा को बल दिया कि एक मजबूत राष्ट्र बाहरी चुनौतियों का सामना करने के लिए एकजुट है, जिसे बढ़ावा देकर बीजिंग बेहद खुश है। लेकिन चीन में वह मजबूत मुखौटा धराशायी हो गया है, क्योंकि आर्थिक और व्यक्तिगत संभावनाओं के धूमिल होने की निराशा व्याप्त है। एक आत्मविश्वासी राष्ट्र और उसकी थकी हुई आबादी के बीच का यह अंतर एक मुहावरे में व्यक्त होता है, जिसका इस्तेमाल चीनी लोग अपने देश का वर्णन करने के लिए करते हैं-‘वाई कियांग, झोंग गान’, यानी बाहर से मजबूत, अंदर से कमजोर।


अब कई लोगों को लग रहा है कि जिन सरकारी नीतियों ने चीन को विदेशों में मजबूत दिखाया है, वही नीतियां उन्हें नुकसान पहुंचा रही हैं। उन्हें लगता है कि सरकार घरेलू चुनौतियों से निपटने के बजाय वैश्विक प्रभाव बनाने और निर्यात बाजारों पर कब्जा करने में ज्यादा दिलचस्पी रखती है। कई साल पहले निजी क्षेत्र पर की गई सरकारी कार्रवाई को मध्यम वर्ग की आजीविका को कमजोर करने के लिए दोषी ठहराया जाता है, जबकि वित्तीय संसाधन उन उद्योगों में लगाए जा रहे हैं, जिन्हें सरकार रणनीतिक रूप से ज्यादा महत्वपूर्ण मानती है, जैसे इलेक्ट्रिक वाहन, सौर ऊर्जा और जहाज निर्माण। इस बीच, दुर्लभ मृदा तत्वों की आपूर्ति और प्रसंस्करण पर चीन ने जो वैश्विक नियंत्रण हासिल किया है, उससे घरेलू वायु और मृदा प्रदूषण बढ़ रहा है। इन दिनों, लोगों में इस बात को लेकर काफी आक्रोश है कि सरकार विश्व शक्ति बनने और अमेरिका को हराने के जुनून में बेसुध हो गई है। सरकार की नवीनतम पंचवर्षीय योजना स्पष्ट करती है कि वह जनहित के बजाय राष्ट्रीय शक्ति को प्राथमिकता देने पर जोर दे रही है।

जब अमेरिका के साथ टैरिफ युद्ध तेज हो गया, तो पीपुल्स डेली के संपादकीय में तर्क दिया गया कि बीजिंग अपने संसाधनों को केंद्रीकृत करने और राष्ट्रीय लक्ष्यों को पूरा करने में उनका उपयोग करने की अपनी क्षमता के कारण अमेरिकी धौंस का विरोध कर सकता है। चीनी इंटरनेट पर इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। एक वायरल सोशल मीडिया पोस्ट में बताया गया कि सरकार भले ही शेखी बघारती हो, लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी और बच्चों की शिक्षा ‘कठिनाइयों से भरी’ है। लेखक ने लिखा कि अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध जीतने का मतलब है कुछ लोगों की बलि देने की तैयारी करना। सेंसर ने जल्द ही इस पोस्ट और इसके जैसे अन्य पोस्टों को ब्लॉक कर दिया। वर्षों पहले चीनी लोग पीपुल्स डेली के ऐसे संपादकीय पर उस सहज राष्ट्रवाद के चलते तालियां बजाते थे, जो सरकार ने दशकों से लोगों में भर रखा है।

आज वह देशभक्ति उन लोगों के सामने लगभग दब गई है, जो अपनी समस्याओं पर भड़ास निकालते हैं। युवा बेरोजगारी इतनी अधिक है कि पिछले साल सरकार ने अपनी गणना पद्धति में बदलाव किया, जिससे यह संख्या कम हो गई। मगर, नया आंकड़ा भी चिंताजनक रूप से ऊंचा बना हुआ है। अनुमान है कि 20 करोड़ लोग गिग अर्थव्यवस्था में अनिश्चित कॅरिअर से गुजारा करते हैं। आवास बाजार में आई भारी गिरावट के कारण अपनी कुल संपत्ति में कमी का सामना करने वाले उपभोक्ता खर्च में कटौती कर रहे हैं, जिससे अर्थव्यवस्था अपस्फीति के चक्र में फंस रही है।

आर्थिक असुरक्षा की भावना लोगों को शादी और परिवार बनाने से रोक रही है, जिससे जनसंख्या में गिरावट और भी बढ़ रही है। जनता का आक्रोश उन लोगों के खिलाफ बढ़ रहा है, जो आर्थिक या राजनीतिक संबंधों को अवसरों में बदल रहे हैं, जबकि ज्यादातर लोग घटती संभावनाओं का सामना कर रहे हैं। माना जा रहा है कि मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में अंधाधुंध चाकूबाजी और अन्य हिंसक घटनाओं से स्पष्ट होता है।

साफ है कि बीजिंग अब विदेशों में अपने बढ़ते आक्रामक रुख के लिए देशभक्ति पर निर्भर नहीं रह सकता। सितंबर में जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति की 80वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में एक भव्य सैन्य परेड का आयोजन किया, तो कई लोगों ने खुलकर हैरानी जताई कि वह पैसा आम लोगों की कठिनाइयों को दूर करने पर खर्च क्यों नहीं किया गया। सरकार ने हाल ही में सोशल मीडिया पर ऐसी सामग्री पर नकेल कसनी शुरू की है, जिसे वह ‘अत्यधिक निराशावादी’ मानती है। साफ है कि वह इस सार्वजनिक बेचैनी को लेकर चिंतित है, जो उसके एजेंडे को कमजोर कर रही है। लेकिन आलोचना के कारणों पर ध्यान देने के बजाय उसे दबाने से जनता से दूरी और बढ़ेगी और वह संतुलन बिगड़ेगा, जिसे राज्य अपनी विदेश नीति की प्राथमिकताओं और उस घरेलू समर्थन के बीच बनाने की कोशिश कर रहा है, जिसकी उसे चाहत है।

चीन लंबे समय से एक अघोषित सामाजिक अनुबंध के तहत फलता-फूलता रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी ने राजनीतिक आज्ञाकारिता के बदले लोगों को अपनी आजीविका बेहतर बनाने की आजादी दी थी। कई लोग कहते हैं कि सरकार अब अपने वादे पर खरी नहीं उतर रही है। जब शी जिनपिंग ने 2012 में सत्ता संभाली, तो उन्होंने बार-बार ‘चीनी स्वप्न’ से लोगों को आशा की किरण दिखाई, यानी राष्ट्रीय शक्ति के माध्यम से साझा समृद्धि का संकल्प। हाल के वर्षों में सरकारी संदेशों में यह मुहावरा कम दिखता है। सरकार शायद कहे कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि उसके अधिकांश सपने हकीकत बन चुके हैं। ज्यादा संभावना यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी समझती है कि ऐसी बयानबाजी अब उस आबादी के बीच खोखली लगती है, जो अपने सपनों को धूमिल होते देख रही है। ©The New York Times 2025  
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