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Children’s Day 2025: मजदूरी की जमीन पर उगते सपने, ईंट उठाने वाले नन्हे हाथ अब कलम से गढ़ रहे अपना भविष्य

ज्योति सिंह, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: विजय पुंडीर Updated Fri, 14 Nov 2025 08:24 AM IST
सार

छोटी बस्तियों में शिक्षा अब सिर्फ सरकारी योजना नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की लड़ाई बन चुकी है। जहां बच्चों के नाम अब स्कूल की उपस्थिति रजिस्टर में दिखते हैं।

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Children’s Day 2025 Children who once worked as laborers are now getting education
बाल दिवस 2025 - फोटो : AI
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विस्तार
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सुबह की धूप में धूल से भरी सड़क के किनारे, जब महिलाएं सीमेंट के कट्टे और लोहे की छड़ें उठाती हैं, तो उनके छोटे-छोटे बच्चे पास की मिट्टी में खेलते हुए जिंदगी की पहली तस्वीर बनाते हैं। कभी इन बच्चों के हाथों में किताब की जगह ईंट हुआ करती थी। सपनों में स्कूल की घंटी नहीं, ठेकेदार की सीटी गूंजती थी। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। क्योंकि कुछ ऐसी महिलाएं हैं, जो कभी खुद उन्हीं बस्तियों की आवाज थीं, आज उन्हीं बच्चों के भविष्य की राह बन गई हैं। छोटी बस्तियों में शिक्षा अब सिर्फ सरकारी योजना नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की लड़ाई बन चुकी है। जहां बच्चों के नाम अब स्कूल की उपस्थिति रजिस्टर में दिखते हैं। मांओं की हथेलियों की दरारों से अब उम्मीद झरती है, क्योंकि उन्हें भरोसा है कि उनके बच्चों का कल अब उन्हीं की तरह धूल में नहीं, किताबों में लिखा जाएगा।

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सुनीता की मुस्कान में उम्मीद की चमक
द्वारका सेक्टर 21 के पास एक निर्माण स्थल पर काम करतीं सुनीता देवी रोज सुबह 7 बजे मजदूरी पर जाती हैं। उनके दो बच्चे सोनू (3) और मोनी (6) अब पास के ही क्रैचर में पढ़ते हैं। सुनीता कहती हैं, कि पहले बच्चे वहीं साइट पर मिट्टी में खेलते थे। सिर पर बोरी उठाते वक्त बस यही डर रहता था कि कहीं कोई गाड़ी उन्हें छू न जाए। अब जब वो स्कूल बैग लेकर जाते हैं, तो मन हल्का हो जाता है।

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आत्मविश्वास सिखाते हैं
क्रैचर चलाने वाली महिला  सदस्य ममता शुक्ला  बताती हैं कि हम रोज 40 से ज्यादा मजदूरों के बच्चों को संभालते हैं। उन्हें सिर्फ पढ़ना नहीं, सफाई, खेल और आत्मविश्वास भी सिखाते हैं। बहुत बच्चे पहली बार पेंसिल पकड़ते हैं।

नवलेश का सपना बेटी को ‘मैडम’ बनाना
नवलेश, जो मूल रूप से बिहार के मधेपुरा जिले से हैं, मयूर विहार में पेंटिंग का काम करते हैं। उनकी 8 साल की बेटी संगीता अब एक एनजीओ स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ती है। नवलेश कहते हैं, कि पहले वो मेरे साथ पेंट का बाल्टी उठाती थी, अब कॉपी-किताब उठाती है। जब वो कहती है कि बड़ी होकर ‘मैडम’ बनेगी, तो लगता है मेरी जिंदगी का रंग बदल गया।

‘अब बच्चों के चेहरे में सुकून दिखता है’
लक्ष्मी, जो पिछले सात साल से मजदूर बस्तियों में बच्चों के साथ काम कर रही हैं, बताती हैं, शुरुआत में बच्चे हमसे डरते थे। उन्हें लगता था कि हम भी उन्हें काम पर भेजने आए हैं। लेकिन जब हमने उन्हें पहली बार स्लेट और रंग दिए, तो उनके चेहरे पर जो मुस्कान थी, वही हमारी जीत थी

मेरा बेटा अब कबाड़ी नहीं पुलिस बनेगा
जहांगीरपुरी की झुग्गी में रहने वाले मुकेश कुमार और उनकी पत्नी मीणा दोनों सफाईकर्मी हैं। उनका बेटा कृष्ण (6) पहले दिन भर सड़क पर कबाड़ बीनता था। एक दिन एनजीओ की सड़क शिक्षा बस उनके इलाके में आई और वहीं से कृष्ण की पढ़ाई की शुरुआत हुई। अब जब कृष्ण खुद कहता है कि वो ‘पुलिस बनकर बस्ती साफ करेगा’।

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