अमर उजाला काव्य का 'मेरे अल्फ़ाज़' सेक्शन पूरी तरह से पाठकों को समर्पित है, जहां वह अपनी रचनाएं भेज सकते हैं। पाठकों द्वारा भेजी गयी रचनाओं को वेबसाइट पर प्रकाशित किया जाता है। आज हम आपके समक्ष जून माह की उन रचनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्हें सबसे अधिक पढ़ा और पसंद किया गया।
अंतर्मन की गलियों में घूमते है
अपने दिलों के एहसास लेकर
कभी बुलाते हैं तन्हाइयों में
खुद को खुद की ही आवाज़ देकर
होती हैं ऐसी दिल की उलझने
जिन्हें कोई सुलझाना नहीं चाहता
मसरूफ़ हैं सब कुछ इस तरह
किसी की तन्हाइयों से कोई
दिल लगाना नहीं चाहता
मासूम हसरतें अब सांसों को तरसती हैं
दम घुटता है उनका फरेबी चालों में
दिल में होते है बातों के खंजर
जज़्बातों को रखते हैं सवालों में
किसी के दिल पे क्या गुज़री
सबको अपने मकसद पूरे करने हैं
जीवन में देते हैं बिखरा सूनापन
और कहते हैं दिल में एहसास के झरने हैं
मुस्कुरा लेते हैं अब अपनी
ख़ामोशियों से प्यार कर कर
अंतर्मन की गलियों में घूमते हैं
अपने दिलों का एहसास लेकर...।
उनके लबों पर भी अब शायद मेरा नाम नहीं आता/ यूनुस खान
उनके लबों पर भी अब शायद मेरा नाम नहीं आता
कोई लम्हा भी खुशी का लेकर पैगाम नहीं आता
धुंधली सी हो चली हैं ताबीर मेरे सभी ख़्वाबों की
आग़ाज़ तो होता है मगर कभी अंजाम नहीं आता
मैं जुगनुओं को ही सितारे समझने लगा हूँ अब तो
मेरी छत पर कभी अब चांद किसी शाम नहीं आता
तुझे भुलाने की कोशिशों में खुद ही उलझ गया हूँ मैं
लबों की तपिश बुझाने को कोई जाम नहीं आता
तन्हाइयों ने भी सन्नाटों के सिवा बख़्शा है क्या मुझे
मैं कैद हूँ घर में तो सर मेरे कोई इल्ज़ाम नहीं आता
ज़ख़्मों को भी अब दवाओं से नफ़रत सी हो गयी है
दर्द इस कदर बढ़ा कि मरहम कोई काम नहीं आता
दोस्तों को भी मेरी अयादत से परहेज हो गया है अब
मेरे घर पर मेरा अपना कोई अब सरेआम नहीं आता
कविता का सृजन/ भावना तोमर
जब कोई अपना चुभाता है
शब्दों के तीर
आँखों से मेरी जब
बरसने लगते हैं नीर
जब दिल दुखाता है मेरा
किसी का व्यवहार
दिल बोझ नही उठा पाता
रोता है ज़ार-ज़ार
तब दिल में दर्द दबाए
ले कर बैठ जाती हूँ
मैं अपनी क़लम
होता है फ़िर
एक दर्द भरी
सुंदर कविता का सृजन
उतार कर दर्द को
काग़ज़ पर
दिल मेरा चैन पाता है
ख़ुशी मिलती है जब
कोई पढ़ कर वो कविता
मुस्कुराता है
और मुझे सरहाता है।
मगर मिरे दिल का हाल क्या है कोई न समझा/ राज़िक़ अंसारी
ख़मोशियों में सवाल क्या है कोई न समझा
हमें है क्या ग़म मलाल क्या है कोई न समझा
सभी ने इक एक रंग अपना बना लिया है
मगर ये रंगों का जाल क्या है कोई न समझा
जवाब देने की इतनी जल्दी पड़ी थी सब को
सवाल ये है सवाल क्या है कोई न समझा
पता था सब को सियासी मोहरे बिछे हुए हैं
मगर सियासत की चाल क्या है कोई न समझा
किया था चेहरा शनास होने का सब ने दा'वा
मगर मिरे दिल का हाल क्या है कोई न समझा
समय का फेरा/ प्रदीप त्रिपाठी "दीप"
काली रात का छटा अँधेरा
सूरज ले आया उजियारा
जीवन में आशाओं का डेरा
हो रहा नव सुबह सवेरा।
जीवन की इस धूप छाँव में
सुख दुःख ने डाला है डेरा
ये भी इक दिन निकल जायेगा
ये सब है समय का फेरा।
जीवन पल-पल बढ़ता जाता
इक इक दिन है घटता जाता
मुसीबतों के जोड़ घटाव में
जीवन आगे बढ़ता जाता।
कभी उदासी कभी प्रसन्नता
कभी ये मन है डूबा जाता,
जीवन के इस समय चक्र में
रोज है सूरज उगता जाता।
कुछ भी स्थिर नहीं है जग में
न धरती न चाँद न तारे
क्यूँ घमण्ड करता है इतना
तू भी तो नश्वर है प्यारे।
अगर आप भी अपनी रचनाएँ अमर उजाला काव्य के माध्यम से शेयर करना चाहते हैं तो अपनी रचना भेजने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें ।
https://www.amarujala.com/kavya/ugc-form
आगे पढ़ें
अंतर्मन/ पूनम राठौर
1 month ago
कमेंट
कमेंट X