हिंदी काव्य में हास्य-व्यंग की विधा का मूल स्त्रोत भारतीय संस्कृति, उसकी विविधता और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। समाज में निहित कमियों और दोषों को गंभीर तथा गाढ़े शब्दों से व्यक्त न करते हुए, हास्य-व्यंग के साथ मीठी और गहरी चोट करना और इसी बहाने समाज का तनाव कम करना हमारी लोक परंपरा का हिस्सा रहा है।
हिंदी काव्य में हास्य-व्यंग की इसी परंपरा को और आगे तक ले जाकर विदेशों तक में हिंदी हास्य-व्यंग का परचम फहराने वाले श्रेष्ठ व्यंगकार व हास्य सम्राट ‘काका हाथरसी’ का आज जन्मदिवस है। काका हाथरसी ने हिंदी हास्य कवि के रूप में विश्वभर में ख्याति अर्जित की। साथ ही अपनी प्रतिभा से विश्व में हिंदी की पताका भी फहराई और हाथरस का नाम भी विश्व में रोशन किया।
हंसी का पर्याय माने जाने वाले काका हाथरसी का जन्म 18 सितंबर 1906 को हुआ था। 1985 में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने 'पद्मश्री' की उपाधि से नवाजा। काका ने फ़िल्म 'जमुना किनारे' में अभिनय भी किया था। 18 सितंबर को 1995 को 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। इसे विरला संयोग ही कहेंगे कि काका हाथरसी का जन्म व अवसान दिवस एक ही दिन है।
फरवरी 2017 को संसद में एक बहस के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काका की कविता को उद्धृत किया। फिल्म पीके में अभिनेत्री अनुष्का शर्मा ने काका की एक रचना का पाठ किया है। काका हाथरसी के नाम पर ही कवियों के लिए 'काका हाथरसी पुरस्कार' और संगीत के क्षेत्र में 'काका हाथरसी संगीत' सम्मान भी आरम्भ किये गये।
आज इस विशेष दिन 'काका हाथरसी' की रचनात्मक यात्रा पर अमर उजाला से ख़ास बातचीत की काका के पौत्र अशोक गर्ग जी ने...
काका हाथरसी को याद करते हुए उनके पौत्र अशोक गर्ग ने कहा कि यह दिन उनके लिए विशेष है। इस बात से उन्हें बेहद ख़ुशी होती है कि आज भी काका हाथरसी को जगह जगह याद किया जाता है। अख़बारों में, डिजिटल मीडिया में हर जगह उनके व्यक्तित्व की चर्चा आज भी होती है। उनका हास्य-व्यंग आज भी हर वर्ग, हर उम्र के लोगों को आनंद से भर देता है।
काका की हास्य कविताओं से उन्हें विशेष प्रेम है। इसी क्रम में काका को याद करते हुए उन्होंने उनकी कविता का पाठ किया। प्रस्तुत है उसके कुछ अंश--
'मेरी प्रथम हवाई यात्रा'
बैठते ही विमान में
सन्न सन्न होने लगी कान में
होस्टेस आयी
बिहारी की नायिका सी
फ़िल्मी गायिका सी
गोरी गोरी पतली सी
बर्फी की कतली सी
उसकी मंद मंद मुस्कान थी तो नकली
पर मालूम होती थी असली
उसकी चितवन में एक विशेषता थी
क्या?
प्रत्येक यात्री ये समझता था
कि वो मेरी ओर देख रही है
हमने दाढ़ी का ख़्याल करके
नज़रें नीचे कर लीं
किन्तु हमारे पास बैठे हुए एक सज्जन
उसे इस प्रकार घूर रहे थे
जैसे अनशनकारी नेता
खस्ता कचौड़ी को घूरता है।
काका के पौत्र अशोक गर्ग ने बातचीत में आगे बताया कि काका हास्य का स्वरूप थे। वे बचपन से ही चंचल थे और हास्य हमेशा से उनके व्यक्तित्व का अहम पहलू रहा। हास्य उनके लिए स्वाभाविक था और उनके इसी स्वभाव के चलते उन्हें हास्य रस में इतनी सफलता मिली और वे हास्य के इतने बड़े कवि हुए।
उनके इसी स्वभाव को याद करते हुए उन्होंने एक कविता से जुड़ी घटना को याद किया। जिसमें काका हाथरसी ने एक दबीज़ वकील साहब पर ऐसी करारी व्यंग कविता लिखी कि वकील साहब ने उनकी पिटाई कर दी। काका ने अपने जीवन में हास्य का दामन हर समय थामे रखा। काका हाथरसी ने अभिनय किया तो हास्य के किरदार निभाए। निर्देशन करते हुए उन्होंने प्रहसन लिखें और उनको प्रमुखता से निर्देशित किया।
अशोक जी ने बताया कि काका प्रगतिशील विचारधारा के कवि थे। उन्होंने हमेशा समाज में फैली कुरीतियों, अनैतिकताओं के विरोध में अपना स्वर दर्ज कराया और अपने व्यंग से सच्चाई का दर्पण समाज और सरकारों को दिखाते रहे।
आगे अशोक जी ने काका के कुछ दोहे सुनाए।
अंतरपट में खोजिए, छिपा हुआ है खोट,
मिल जाएगी आपको, बिल्कुल सत्य रिपोट।
अंदर काला हृदय है, ऊपर गोरा मुक्ख,
ऐसे लोगों को मिले, परनिंदा में सुक्ख।
अंग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज,
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अंगरेज।
अक्लमंद से कह रहे, मिस्टर मूर्खानंद,
देश-धर्म में क्या धरा, पैसे में आनंद।
काका के व्यक्तित्व के विविध आयामों के विषय में बात करते हुए अशोक जी ने बताया कि काका हाथरसी ने कला क्षेत्र में पर्दापण अभिनय से किया। उसके बाद उन्हें कविता और संगीत का साथ मिला। काका को बांसुरी वादन का शौक था और वो अक्सर अपने साथ बांसुरी रखते थे। संगीत के प्रति अपने प्रेम के कारण उन्होंने प्रारंभिक संगीत शिक्षा से जुड़ी पुस्तक 'म्यूजिक मास्टर' लिखी। 1935 में उन्होंने संगीत पत्रिका का संपादन शुरु किया। यह पत्रिका आज भी प्रकाशन में है और काका हाथरसी के पुत्र डॉ लक्ष्मीनारायण गर्ग इसका संपादन कर रहे हैं।
अंत में अशोक जी ने काका के व्यंग का एक अंश पढ़ा जो कुछ इस प्रकार है -
जप-तप-तीरथ व्यर्थ हैं, व्यर्थ यज्ञ औ योग ।
करज़ा लेकर खाइये नितप्रति मोहन भोग ॥
नितप्रति मोहन भोग, करो काया की पूजा ।
आत्मयज्ञ से बढ़कर यज्ञ नहीं है दूजा ॥
कहं ‘काका' कविराय, नाम कुछ रोशन कर जा ।
मरना तो निश्चित है करज़ा लेकर मर जा॥
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1 year ago
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