किशन सरोज जैसे गीतकार हिंदी की दुनिया में कभी- कभी जन्म लेते हैं। वे रागात्मक भाव के कवि थे और उनकी अधिकांश रचनाएं राग भाव के प्रासंगिक स्थितियों पर आधारित हैं। 19 जनवरी 1939 को उत्तर प्रदेश के बरेली के बल्लिया ग्राम में जन्मे किशन सरोज ने 350 से अधिक प्रेमगीत लिखे। प्रस्तुत है किशन सरोज के 3 चुनिंदा गीत....
दूर तक फैला नदी का पाट, नावें थक गयीं
शाल वृक्षों से लिपटकर,
शीश धुनती–सी हवाएं
बादलों के केश, मुख पर
डाल, सोयी–सी दिशायें
धुंध की जुड़ने लगी फिर हाट, नावें थक गयीं
मोह में जिसका धरा तन
हो सका अपना न वह जल
देह–मन गीले किये, पर
पास रुक पाया न दो पल
घूमते इस घाट से उस घाट, नावें थक गयीं
टूटकर हर दिन ढहा
तटबन्ध- सा सम्बन्ध कोई
दीप बन हर रात
डूबी धार में सौगन्ध कोई
देखता है कौन किसकी बाट, नावें थक गयीं
कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की
कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की
देखिए तटबंध कितने दिन चले
मोह में अपनी मंगेतर के
समंदर बन गया बादल
सीढियाँ वीरान मंदिर की
लगा चढ़ने घुमड़ता जल
काँपता है धार से लिप्त हुआ पुल
देखिए सम्बन्ध कितने दिन चले
फिर हवा सहला गई माथा
हुआ फिर बावला पीपल
वक्ष से लग घाट के रोई
सुबह तक नाव हो पागल
डबडबाए दो नयन फिर प्रार्थना के
देखिए सौगंध कितने दिन चले
बिखरे रँग, तूलिकाओं से
बना न चित्र हवाओं का
इन्द्रधनुष तक उड़कर पहुँचा
सोंधा इत्र हवाओं का
जितना पास रहा जो, उसको
उतना ही बिखराव मिला
चक्रवात-सा फिरा भटकता
बनकर मित्र हवाओं का
कभी गर्म लू बनीं जेठ की
कभी श्रावनी पुरवाई
फूल देखते रहे ठगे-से
ढंग विचित्र हवाओं का
परिक्रमा वेदी की करते
हल्दी लगे पाँव काँपे
जल भर आया कहीं दॄगों में
धुँआ पवित्र हवाओं का
कभी प्यार से माथा चूमा
कभी रूठ कर दूर हटीं
भोला बादल समझ न पाया
त्रिया–चरित्र हवाओं का
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कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की
5 months ago
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