पेट से शुरू होती है
आंखो में नजर आ जाती है
भूखे से पूछो
रोटी कितने मंज़र दिखलाती है
कभी मजहब का भेद मिटती है
कभी यातना कभी रण भी करवाती है
खाली पेट गर्मी में देह जलाती है
सर्दी में देह कपकपाती है
ये रोटी कितने मंज़र दिखलाती है
कहीं दूर कोई बच्चा जब खाली पेट सोता होगा
कभी जब कोई भूख से बिलखता रोता होगा
जब मां अपने बच्चों को रोटी ना दे पाती होगी
खुद ही खुद में खुद को कितना बेबस वो पाती होगी
ये बात यही सिखलती है ,
ये रोटी कितने मंज़र दिखलाती है
किसी की आंखो से आंसू बन उतर आती है
किसी शायर की रोशनाई में रंग जाती है
ये बात जो अमीरों की थाली से बोहोत दूर नजर आती है
रोटी का एक मंज़र मै भी देख पाया हूं
भूख महसूस की तो रोटी पे लिख पाया हूं ।
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8 months ago
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