आप अपनी कविता सिर्फ अमर उजाला एप के माध्यम से ही भेज सकते हैं

बेहतर अनुभव के लिए एप का उपयोग करें

विज्ञापन

मन की हलचल

                
                                                                                 
                            नफरत सी हो गई है अब मुझे मेरे ही किरदार से
                                                                                                

हार सी गई हूं बस आज अपने ही आप से
बात यह नहीं है कि जवाब मेरे पास नहीं है
पर डरती हूं रिश्तो में तकरार से
नहीं चाहती मैं की झुके कोई मेरे सामने,
बस मैं कभी हो जाऊं उदास तो हँसाये मुझे भी कोई किसी बहाने से
रिश्तो की तकरार ना जाने क्यों मुझे तोड़ सी जाती है
अपने हो या पराए मैं कुछ बोलूं तो मुख मोड़ ही जाते हैं
हृदयों को जोड़ने की कोशिश में करती ही रहती हूं
न जाने मेरी कौन सी गलती से रिश्ते चटक ही जाते हैं
आज भी उम्मीदों के सपने न जाने क्यो मुझसे ही सबने बुन रखे हैं
जब सबके दिल हमने ही तोड़ रखे हैं,
रिश्तों की बगावत में, मैं पीस जाती हूं।
कभी मिर्जा कभी धनिया तो कभी हल्दी बन जाती हूं।।

- रंजना शुक्ला
 
हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।  आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
1 year ago

कमेंट

कमेंट X

😊अति सुंदर 😎बहुत खूब 👌अति उत्तम भाव 👍बहुत बढ़िया.. 🤩लाजवाब 🤩बेहतरीन 🙌क्या खूब कहा 😔बहुत मार्मिक 😀वाह! वाह! क्या बात है! 🤗शानदार 👌गजब 🙏छा गये आप 👏तालियां ✌शाबाश 😍जबरदस्त
विज्ञापन
X
बेहतर अनुभव के लिए
4.3
ब्राउज़र में ही