आसमान की गहराइयों को उन्मुक्त नापते पक्षियों को देख और पेड़ों की शाखाओं पर बैठे उन्हें चहचहाते सुन किसका मन खुशी से नहीं खिल जाता? दुर्भाग्यवश, बहुत लोग चाव से उन्हें घर में पिंजरे में कैद कर पालते भी हैं। तोता-मैना जैसे पक्षियों से तो हम बड़े प्यार से बातें करते हैं और उनसे घर के सदस्य जैसा व्यवहार भी करते हैं। पर ज्यों ही कोई बेघर कबूतर का जोड़ा अपना घर बसाने हमारी बालकनी या आँगन में चला आता है तो उसे तुररन्त भगाने को तत्पर रहते हैं। बालकनियों को जाल से ढक कर उनसे बचते हैं। इस साल की रिकॉर्ड तोड़ती गर्मी ने उनके इस अंडे देने के मौसम में उन्हें परिवार बड़ाने का कोई उचित ठिकाना ढूंढ़ने की कठिनाई के अलावा खुद के लिए इस गर्मी की मार से बचने व दाना-पानी जुटा जीवित रहने की समस्या भी पैदा हो गई है। ऐसे में ज़रूरत है कि अपने वातानुकूलित घरों में आराम से बैठे हम मानव द्वारा इन अपने प्राकृतिक आवासों से निर्वासित जीवों का भी सोचें और उनके प्रति सहानुभूति दिखाएँ।
मुझे याद है, महाराष्ट्र राज्य के कोल्हापुर जिले के एक बूढ़े किसान के बारे में कुछ साल पहले छपा पक्षियों के प्रति उसकी संवेदना का एक समाचार काफी प्रेरणादायक और हृदय को छू जाने वाला था। वह किसान उन सैंकड़ों साथियों में से एक था जिन्होंने मानसून की विफलता से आयी सूखे की स्थिति में अपनी फसल खो आर्थिक नुकसान उठाया था और खुद खाने-पीने को मोहताज हो गए थे; फिर भी वह अकेला ऐसा था जिसने अपनी दयनीय अवस्था के बावजूद, सूखे से प्रभावित दूसरों की दुर्दशा के बारे में सोचा और अपने तबाह हुए ज्वार के खेत से जो थोड़ी-बहुत उपज बची थी, उसे खेत में ही छोड़ दिया ताकि वह उस से अधिक ज़रूरतमंदों जीवों के काम आ सके। उस भयंकर सूखे से जैसे-जैसे खड़ी फसलें तबाह होने लगी और खेतों के आस-पास के सभी जलाशय सूखने लगे, इन विरोधी हालातों के चलते. अधिकतर खेतों की उपज पर ही निर्भर, गांव के आस-पास के क्षेत्रों में पेड़ों पर घोंसले बनाने वाले पक्षियों को भी अनदेखी आपदाओं का सामना करना पड़ा। सहज उपलब्ध अनाज व पानी के अभाव में न केवल उनका अपना अस्तित्व खतरे में पड़ा बल्कि घोंसलों में अंडों के अंदर पनपती नयी ज़िंदगियों की अकाल समाप्ति भी निश्चित लगने लगी। इन दुखद संभावनाओं से आशंकित हो अपने खेत के आस-पास के इलाके के पक्षियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, उस बूड़े किसान ने अपनी पूरी खड़ी फसल उनको समर्पित कर दी।
निश्चय ही, यह मानवीय गुण का एक उत्कृष्ट उदाहरण था जो सामान्य रूप से नहीं देखा जाता। लेकिन उस मुस्कान और संतुष्टि की कल्पना की जा सकती है जिसने किसान के चेहरे को चमका दिया होगा जब उसने अपने पंखों वाले दोस्तों को अपने श्रम के फल पर दावत उड़ाते और मिट्टी के बर्तनों में भरे पानी से अपनी प्यास बुझाते हुए देखा होगा, जिन्हें उसने बांस के मचान पर उन्ही के लिए छोड़ा था, भले ही उस तबाह खेत से प्राप्त अनाज इतना पर्याप्त होता कि वह पूरे एक वर्ष तक उसके दस सदस्यों के परिवार का भरण-पोषण कर सके।
चिंता का विषय है कि पूरी दुनिया में पक्षियों की आबादी तेजी से घट रही है। जबकि औद्योगीकरण द्वारा लाए गए जलवायु परिवर्तन सभी जीवित प्राणियों पर गहरे हानिकारक असर दिखा रहे हैं, ऐसा देखा जा रहा है कि पक्षियों की कई प्रजातियों का सफाया हो रहा है या उनकी आबादी उनके पारिस्थितिक रूप से बेमेल होने के कारण काफी कम हो रही है। और यह हजारों साल से प्रवासी पक्षियों का पृथ्वी पर जीवन-चक्र की घटनाओं के समय, जैसे सर्दियाँ और बसंत ऋतु के आगमन पर उनके निर्धारित प्रवासन पैटर्न, में मानवीय कारणों से आए अप्रत्याशित बदलाव को समायोजित करने में पक्षियों की विफलता की वजह से है। औद्योगीकरण के लिए वनों की कटाई, मानव बस्तियों का विस्तार और कृषि उपयोग जैसे परिदृश्य परिवर्तन उनके आवास को उन से छीन रहे हैं। जबकि मानव बस्ती के कंक्रीट जंगलों में पक्षियों के लिए कोई जगह नहीं है, यह भी तर्कसंगत है कि किसान वर्ग ढोल, टीन-डब्बे बजाकर उन्हें डरा, जी-जान से अपनी फसलों की रक्षा करते हुए खेत-खलियान से भी दूर भगाता है। कृषि और बागवानी खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध उपयोग न केवल उन्हें कीड़ों में उनके हक से वंचित कर रहा है, बल्कि उनके अस्तित्व के लिए जोखिम पैदा कर रहा है।
जहां धरती से पक्षियों की 159 प्रजातियाँ पहले ही लुप्त हो चुकी हैं और 2500 से अधिक प्रजातियाँ खतरे में हैं, अकेले यूरोप में तीन दशकों और पच्चीस देशों में फैले एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार, पक्षियों की आबादी में चार सौ बीस मिलियन से अधिक की भारी गिरावट आई है। उनमें से प्रमुख गौरैया हैं, जिसने एक सौ संतालीस मिलियन या 62% आबादी को खो दिया, स्टारलिंग या तिलियर मैना में 57% और स्काईलार्क या आबबिल में 46% की कमी आई। भारत में गौरैया इतनी आम थी। वे हर घर और इमारत में घोंसला बनाती थी। रोशन दान और छत के पंखे उनकी पसंददीदा जगहें हुआ करती थी। अब उन्हें कंक्रीट की ऊंची-ऊंची चारों तरफ से बंद इमारतों में ढूंढना मुश्किल है, क्योंकि उनकी अब वहाँ कोई पहुंच नहीं है। उन्हें केवल गांवों और छोटी शहरी सेटिंग्स में देखा जा सकता है। खेल और भोजन के लिए पक्षियों की बड़े पैमाने पर हत्या उनकी घटती संख्या का कारण रही है।
मैं अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में अपने प्रवास के दौरान काबुल बाजारों के फुटपाथों पर बिक्री के लिए प्रदर्शित मृत गौरैयों के उन ऊंचे टीलों के भयानक दृश्य को नहीं भूल सकता- प्रत्येक टीले में कम से कम दो-तीन हजार असहाय प्राणियों की ताजा लाशें थीं। फिर पशुधन के उपचार में डाइक्लोफेनाक दवा के गैर-शोधित पशु चिकित्सा उपयोग ने भारत और दक्षिण एशिया में गिद्धों पर अपरिवर्तनीय प्रभाव डाला। क्योंकि डाइक्लोफेनाक पक्षियों में गुर्दे की विफलता का कारण बनता है, इस दवा के साथ इलाज किए गए मवेशियों के शवों को खाने से, गिद्धों की विभिन्न किस्मों के नब्बे प्रतिशत से अधिक की मृत्यु 1992 से 2007 की छोटी अवधि के दौरान हुई, जब अंततः दवा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन एक विशाल सामाजिक- स्वास्थ्य और स्वच्छता की समस्याओं के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में आर्थिक प्रभाव पड़ा क्योंकि सड़ते हुए शवों को आवारा कुत्तों को खाने के लिए छोड़ दिया गया था, जिसके परिणामस्वरूप रेबीज और अन्य पारिस्थितिक असंतुलन की घटनाओं में वृद्धि हुई थी।
जबकि हमने अपने शहरी ढांचे से पक्षियों को दूर कर दिया है, यह दिलचस्प है कि अधिकांश कस्बों और शहरों में कुछ चौकों को देखा जाता है जहां उनका स्वागत किया जाता है और भोजन की प्रचुरता के साथ दावत दी जाती है। लंदन का ट्राफलगर स्क्वायर ऐसा ही एक है। कुछ दशक पहले जब हमने इसे देखा तो इसमें लगभग चार हजार कबूतरों का जमावड़ा हुआ करता था। लेकिन फिर अधिकारियों ने बाद में उनकी संख्या को दो सौ तक सीमित करने का निर्णय लिया और उनके भोजन पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसमें पचास पाउंड का प्रारंभिक जुर्माना जल्द ही दस गुना बढ़ाकर पाँच सौ पाउंड कर दिया गया क्योंकि कबूतरों की इस भारी संख्या ने ट्राफलगर स्क्वायर के उचित रख-रखाव को ऐसा नुकसान पहुंचाया कि उसे पच्चीस मिलियन पाउंड के पुनर्निर्माण से गुजरना पड़ा।
कबूतरों की बीठों ने केवल नेल्सन के कॉलम को ही एक लाख चालीस हज़ार पाउंड के नुकसान का कारण बना दिया था । पेरिस में नॉट्रे डेम के कैथेड्रल के सामने एक ऐसा ही इलाका है जहां कबूतरों को खाना खिलाया जाता है। लेकिन हमने बेसिलिका ऑफ सेक्रेड हार्ट के लॉन में उस आदमी को और अधिक दिलचस्प पाया था जो अपनी मुट्ठी में कुछ अनाज रखता था और उसकी तीखी सीटी पर बीसिओं गौरैया उसके पास उड़ के आती थीं और बंद मुट्ठी के सुराख से हवा में स्थिर हो दाने चुगती थीं। हमारी किशोरी बेटी के लिए अपने हाथ से उड़ते पक्षियों को खाना खिलाना एक रोमांचकारी अनुभव था, हालांकि उस आदमी की सीटी अपनी कीमत बटोरने पर ही बजती थी।
दुनिया भर के कई अन्य शहरों की तरह, दिल्ली में भी ऐसे कई चौक हैं जहाँ लोग कबूतरों को दाना खिलाने जाते हैं। जबकि वहां अनाज बेचने वाले खूब पैसा कमाते हैं, आपको भाग्यशाली होना होगा यदि कोई कबूतर आपके दाने की ओर आकर्षित हो। उनकी अनिच्छा का कारण यह है कि पक्षियों को अधिक भूख नहीं लगती है। फर्श पहले से ही छोड़े गए विभिन्न प्रकार के दानों की एक इंच ऊंची परत से ढका हुआ होता है, जबकि विक्रेता अभी भी अपने माल को उन परिवारों को बेचने की कोशिश कर रहे होते हैं जो मनोरंजन के लिए वहां एकत्र हुए होते हैं।
हालांकि कई लोग सोचते हैं कि यह धर्मार्थ काम है और वे पक्षियों के प्रति दयालु हैं, वास्तव में वे न केवल उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि अपने लिए स्वास्थ्य के लिए खतरा भी पैदा कर रहे हैं। डॉक्टरों और पक्षी-विज्ञानियों का मानना है कि अप्राकृतिक भोजन केंद्र पक्षी पारिस्थितिकी तंत्र को भटका देते हैं और प्राकृतिक वितरण और घनत्व को बिखरा के और अप्राकृतिक निर्भरता पैदा करके पर्यावरणीय समस्याएं पैदा करते हैं। जबकि इस तरह की फीडिंग साइट सड़ने वाले भोजन और पक्षियों की बीठों से बदबू आती है और स्वच्छता की समस्या पैदा करती है, जमा हुए कबूतर की बीठों के संपर्क में आने से मनुष्यों में एलर्जी और श्वसन संबंधी समस्याएं और निमोनिया हो सकता है। कबूतर की बीठों से फंगल इंफेक्शन भी हो सकता है।
एक पक्षी-हितैषी होने के लिए अपने बगीचे, आंगन, बालकनी या छत पर भी पानी का बर्तन और कुछ खाने की थाली रखना एक अच्छा विचार होगा ताकि आपके आस-पास रहने वाले पक्षी खुद की जरूरत और सुविधा-अनुसार आपके आतिथ्य का आनंद उठा सकें।
नवंबर 1954 में दिल्ली में जन्मे बिमल सहगल, आई एफ एस (सेवानिवृत्त) ने दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य में ऑनर्स के साथ स्नातक होने के बाद, वह विदेश मंत्रालय में मुख्यालय और विदेशों में स्थित विभिन्न भारतीय राजदूतवासों में एक राजनयिक के रूप में सेवा करने के लिए शामिल हो गए। ओमान में भारत के उप राजदूत के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने जुलाई, 2021 तक विदेश मंत्रालय को परामर्श सेवाएं प्रदान करना जारी रखा।
कॉलेज के दिनों से ही लेखन के प्रति रुझान होने से, उन्होंने 1973-74 में छात्र संवाददाता के रूप में दिल्ली प्रेस ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन्स में शामिल होकर ‘मुक्ता’ नामक पत्रिका में 'विश्वविद्यालयों के प्रांगण से' कॉलम के लिए रिपोर्टिंग की। अखबारों और पत्रिकाओं के साथ लगभग 50 वर्षों के जुड़ाव के साथ, उन्होंने भारत और विदेशों में प्रमुख प्रकाशन गृहों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और भारत व विदेशों में उनकी सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। अंत में, 2014-17 के दौरान ओमान ऑब्जर्वर अखबार के लिए एक साप्ताहिक कॉलम लिखा।
साथ ही निजी रुचि अनुसार, एक कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, अभिनेता भी रहे हैं। 1973 के दौरान उन्हें एन सी सी द्वारा 3.3 राइफल शूटिंग में दिल्ली का सर्वश्रेष्ठ निशानेबाज चुना गया। पौधों और पेड़ों की शाखाओं और जड़ों में मानव और पशु आकारों को पुनः प्राप्त करने की 'फ्लोरल फ़ोना' नामक एक अनूठी कला की शुरुआत की, जिसकी कला मंडलियों में मूल्यांकन और सराहना की गई और भारत और विदेशों में प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में व्यापक रूप से समीक्षा की गई। उन्होंने ऐसी सैकड़ों कलाकृतियों का सृजन किया है। आईसीसीआर ने ओमानी सोसाइटी फॉर फाइन आर्ट्स के सहयोग से मई, 2014 के दौरान मस्कट, ओमान में उनकी कलाकृतियों की प्रदर्शनी की मेजबानी की। भारतीय विदेश सेवा संस्थान ने भी अप्रैल 2020 के दौरान उनकी कलाकृतियों की एक प्रदर्शनी व भारतीय और विदेशी राजनयिकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत उनके व्याख्यानों का आयोजन किया।
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1 month ago
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