बचपन के वो दिन याद कीजिए.. जब घर में पराग, नंदन, चंदामामा, लोटपोट, दीवाना, बाल भारती, बालक, बाल हंस जैसी पत्रिकाएं आती थीं, इंद्रजाल कॉमिक्स आते थे और तमाम अखबारों से लेकर पत्र पत्रिकाओं तक में बच्चों के लिए बहुत सारी सामग्री हुआ करती थी...कॉमिक स्ट्रिप्स से लेकर विज्ञान की कथाओं तक, लोक कथाओं से लेकर पंचतंत्र की कहानियों तक... ऐसी इतनी सामग्री कि बच्चों को हर वक्त इनका इंतज़ार रहता था...पत्रिकाओं की छीना झपटी मचती थी और पढ़ने का एक अलग सुख होता था...
अब बच्चों के लिए मोबाइल ही सबकुछ है... उसी में बच्चों से लेकर बड़ों तक की पूरी दुनिया सिमट गई है... लगता है जैसे इस बदलाव में एक पीढ़ी जहाँ बहुत पीछे रह गई तो दूसरी पीढ़ी बहुत आगे निकल गई है। आज बाल पत्रिकाओं के मुकाबले बच्चे मोबाइल की स्क्रीन पर यूट्यूब और तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए कहानियाँ देख रहे हैं। उनका पूरा बौद्धिक स्पेस मोबाइल और इंटरनेट तक सिमट गया है।
बाल साहित्य की शैली भी बदली है
वैसे हिंदी की जो साहित्यिक दुनिया रही है उसके केंद्र में बाल साहित्य कभी नहीं रहा। आम तौर पर बाल साहित्य को अगंभीर साहित्यिक कर्म के रूप में देखा गया। आज भी बाल साहित्य के अस्तित्व पर अलग से कम ही बात होती है। लेकिन यह जरूर है कि इस दौर में बाल साहित्य को लेकर थोड़ी चिंता जरूर उभरी है और इस तरफ तमाम बड़े साहित्यकारों की नज़र जाने लगी है। अगर ऐसा नहीं होता तो स्थापित कवि और साहित्यकार बाल साहित्य की तरफ कैसे आते। ज्ञानपीठ से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल हों या मुख्य धारा के साहित्य की जानी मानी शख्सियतें नरेश सक्सेना या फिर दिविक रमेश, अब तेजी से स्तरीय बाल साहित्य का सृजन होने लगा है। साहित्य अकादमी भी बाल साहित्य के लिए पुरस्कार देने लगा है, हर साल बच्चों के लिए बेहतर साहित्य छापता है, प्रकाश मनु सरीखे साहित्यकार बाल साहित्य का इतिहास लिख रहे हैं और एक बार फिर बच्चों को लेकर हमारी साहित्यिक चिंताएं साफ तौर से नज़र आने लगी हैं।
तकनीक के इस बदलते दौर में बाल साहित्य की चुनौतियों पर जाने माने साहित्यकार और बच्चों के लिए तमाम किताबें लिखने वाले सुभाष चंदर कहते हैं कि आज के दौर में बाल साहित्य की शैली भी बदली है और पढ़ने लिखने का तरीका भी। पहले वाला दौर रहा नहीं और इंटरनेट के इस ज़माने में बच्चों के पास देखने और पढ़ने को बहुत कुछ है, लेकिन उनके मनोविज्ञान को समझकर लिखना और उन्हें बच्चों तक पहुंचाना एक चुनौती तो है ही। फिर भी नए बदलाव ने कुछ सुखद रास्ते भी खोले हैं और एक बार फिर से बाल साहित्य के प्रति तमाम संस्थानों में एक सकारात्मक कोशिशें देखने को मिल रही हैं।
वहीं जाने माने बाल साहित्यकार दिविक रमेश मानते हैं कि चुनौतियों के बावजूद बाल साहित्य को लेकर फिर से चिंता दिख रही है। साहित्य अकादेमी ने बाल साहित्यकारों के लिए भी पुरस्कार देने की शुरुआत की है, लेकिन बाल साहित्य के प्रति नज़रिया आज भी बदला नहीं है। जबकि बच्चों के लिए लिखना कहीं ज्यादा मुश्किल है। बच्चों के लिए लिखने वाले साहित्यकारों को पहले भी गंभीरता से नहीं लिया जाता था और आज भी कमोबेश वही हालत है। बावजूद इसके नई पीढ़ी और खासकर बच्चों और किशोरों के लिए साहित्य को नई तकनीक के ज़रिये सामने लाने की कोशिश हो रही है। तमाम पुस्तक मेलों में बच्चों के लिए अलग सेक्शन होते हैं और वहां भीड़ भी सबसे ज्यादा होती है।
लेकिन मुख्य सवाल यही है कि जब एक अपसंस्कृति और संवेदनहीन समाज का ताना बाना हमारे बच्चों के मन मस्तिष्क के इर्द गिर्द लगातार नजर आए तो ऐसे में उनतक बेहतर साहित्य कैसे पहुंचे। आज के दौर में सियासत और समाज का जो रिश्ता है, धर्म के आधार पर विभाजन किया जा रहा हो, समाज में असमानता औऱ गैर बराबरी की स्थिति साफ नजर आ रही हो, पूंजी का तंत्र हावी हो, मीडिया जब अपनी विश्वसनीयता खो चुका हो, ऐसे में हमारी नई पीढ़ी को इससे कैसे बजाया जाए...
साहित्य उत्सवों की संस्कृति
बाल साहित्य को लेकर कुछ गंभीर चिंता हमेशा से नजर भी आती रही और आजादी के पहले से लेकर अबतक ते हमारे कई साहित्यकार, चाहे वह प्रेमचंद हों, चंद्रधरशर्मा गुलेरी हों, श्रीलाल शुक्ल हों, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कन्हैयालाल नंदन, जयप्रकाश भारती, योगेन्द्र कुमार लल्ला, दिविक रमेश हो, नरेन्द्र निर्मल, क्षमा शर्मा, प्रकाश मनु समेत तमाम ऐसे साहित्यकार रहे हैं जो लगातार बच्चों के लिए काम कर रहे हैं... गुलजार, सई परांजपे, तपन सिन्हा जैसे फिल्मकार भी रहे जिन्होंने बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए फिल्में भी बनाईं और लिखा भी बहुत कुछ।
अगर नए दौर में पुस्तक मेलों और साहित्य उत्सवों की संस्कृति की बात करें तो यहां भी बच्चों के लिए हमेशा एक नए खंड आप देख सकते हैं जिसमें बदलते वक्त के साथ बच्चों को ई बुक्स से लेकर मोबाइल ऐप तक और इंटरनेट के तमाम माध्यमों के जरिये बहुत कुछ ज्ञानवर्धक देने की कोशिश हो रही है। मुख्य चिंता बस यही है कि जब बच्चों को अपने घरों में या अपने बड़े बुजुर्गों के बीच वो बात या वो माहौल न मिले तो वो करें क्या, कैसे पढ़ें औऱ क्या पढ़ें। हम बड़ी आसानी से बच्चों को नई पीढ़ी को दोष दे देते हैं, लेकिन यह मूल बात हमें समझ में नहीं आती कि हम उन्हें क्या दे रहे हैं, कौन सा मूल्य, कौन से संस्कार और समाज के प्रति कौन सा नज़रिया। बेशक बाल साहित्य की दुनिया बदली हो, तौर तरीके बदले हों लेकिन अभी वहां बहुत सी उम्मीदें बाकी हैं... बहुत कुछ नया आ रहा है और बच्चों का साहित्य भी नए ज़माने के साथ और रोचक तरीके से बदल रहा है... जरूरत उन्हें इसके प्रति सजग करने की है....
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बाल साहित्य की शैली भी बदली है
4 महीने पहले
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