हम सोचते हुए मीच लेते हैं आंखें, कोई अच्छा संगीत सुनते वक़्त भी, अगर ठहर जाएं किसी वाद्य पर उंगलियां तब भी यही तो होता है। हर वो शै जो दिल से जुड़ी हो वहां ख़ुद व ख़ुद बंद हुई जाती हैं आंखें ताकि भीतक तक महसूस कर सकें। तब वो फ़नकार जिसे भौतिक रूप से तो दुनिया न दिखाई पड़ी, सदा बंद ही रहीं जिसकी आंखें उसने अपने अंदर ज़हन की कितनी परतों को महसूस किया होगा। बल्कि इन्हीं के भीतर ही रहा उसका अस्तित्व।
इसलिए उस कलाकार ने जो लिखा, संगीतबद्ध किया और गाया वह सीधा सुनने वालों के ह्रदय तक पहुंचा। शरीर की इन्द्रियों के व्याकरण से जीत जाने वाले रवीन्द्र जैन जिनका नाम आज रौशनाई और राग के अनुप्रास को पूरा करता है।
रवीन्द्र जैन ने सिनेमा में बड़े-बड़े हिट दिए। कितनी ही बार गीत, संगीत और गायन उनका ही रहा तो कई बार उनके लिखे पर किसी और ने भी गाया। सीरियल रामायण और श्रीकृष्णा का संगीत घर-घर गूंजा। उनकी आवाज़ में जो गीत बहे वे किसी नदी के उद्गम से लगते हैं जिसकी धार से मन शुद्ध हो जाता है। नदिया के पार, राम तेरी गंगी मैली, हिना, विवाह, अंखियों के झरोखों से और भी कितनी ही फ़िल्में इसका उदाहरण हैं।
गाने का शौक उन्हें बचपन से था, पहले भजन गाते थे फिर रवीन्द्र संगीत सीखने कलकत्ता गए और वहीं से मुंबई के रास्ते भी खुल गए। अपनी धुनों पर बोल लिखना शुरु किया तो वह भी पसंद आने लगे और वह संगीतकार से गीतकार भी हो गए। रवीन्द्र जैन की पैदाईश अलीगढ़ की है जहां ब्रज की छाप है इसलिए उनके बोलों में भी यह स्पष्ट दिखाई देता है।
किसी एक इंटरव्यू में जब आंखों की रौशनी से संबंधित सवाल उनसे पूछा गया तो वे कहते हैं कि
तन के हिस्से में सिर्फ़ दो आंखें
मन की आंखें हज़ार होती हैं
तन की आंखें तो सो भी जाती हैं
मन की आंखें न कभी सोती हैं
चांद-सूरज के जो हों ख़ुद मोहताज
भीख मांगों न उन उजालों की
बंद आंखों से ऐसे काम करो
आंख खुल जाएं आंख वालों की
जो वे लिख गए, वे कर भी गए। रवीन्द्र अपनी कलम से कितने नज़ारे दुनिया वालों के दिखा गए। जितना सुंदर गाया, उतना ख़ूबसूरत संगीत भी था और उसी सोपान के बोल भी रहे। उन्हें 2015 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उसी बरस उनकी मौत भी हुई। लेकिन उनके गाने आज तमाम नौजवान फ़नकारों के लिए रौशनी हैं।
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