तुम्हारे नाम इक चिट्ठी लिखी है, जो कहना था उसी में कह गया हूं। बहुत सारा उसी चिट्ठी में हूँ मैं, यहां बिल्कुल तनिक सा रह गया हूं। कभी मिलकर कहूंगा जो बचा है, बचा हूँ कितना?कितना ढह गया हूं? ये दुनिया ग़ज़ल पढ़ती है हमारी, क्या जाने दर्द कितना सह गया हूं। किसी पन्ने पे स्याही ही नहीं है, मैं बनके अश्क उसमें बह गया हूं। अनुपम पाठक "अनुपम"
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