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TB: आईवीएफ के बाद बढ़ जाता है टीबी का खतरा, मां- बच्चे दोनों पर पड़ता है प्रभाव, देखें- एक रिपोर्ट

चंद्रभान यादव, अमर उजाला, लखनऊ Published by: ishwar ashish Updated Fri, 14 Nov 2025 10:10 AM IST
सार

आईवीएफ से गर्भधारण के बाद महिलाओं में टीबी का खतरा पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ जाता है। यह निष्कर्ष निकला है प्रो आरके गर्ग व अन्य विशेषज्ञों की अध्ययन रिपोर्ट में।

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Study: Risk of TB increases after IVF, affecting both mother and child
प्रतीकात्मक तस्वीर। - फोटो : Adobe Stock
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विस्तार
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केस-1 : बलिया की गीता सिंह (बदला नाम) ने करीब पांच लाख खर्च करके निजी सेंटर में आईवीएफ प्रक्रिया शुरू कराई। तीन माह बाद पता चला कि टीबी की वजह से गर्भपात हो गया। फिर उन्होंने टीबी का इलाज कराया और अब मां बन गई हैं।

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केस-2 :  बांदा निवासी किरन पटेल ने आईवीएफ से गर्भधारण किया। कुछ दिन बाद पता चला कि उन्हें मतिष्क की टीबी हो गई है। इलाज शुरू हुआ। प्रसव के बाद बच्चे में भी यह समस्या पाई गई।
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इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) से गर्भधारण के बाद महिलाओं में ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) का खतरा पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ जाता है। यह खतरा मां के साथ बच्चों में भी होता है। इसलिए आईवीएफ से पहले टीबी की जांच जरूरी है। टीबी का प्रभाव बढ़ने की वजह रोग प्रतिरोधक क्षमता का प्रभावित होना माना जाता है। यह निष्कर्ष निकला है प्रो आरके गर्ग व अन्य विशेषज्ञों की अध्ययन रिपोर्ट में।

सरकारी सेंटरों पर आईवीएफ से पहले सभी जांच कराई जाती है, लेकिन कई निजी सेंटर इसे नजरअंदाज करते हैं। विभिन्न राज्यों में आईवीएफ से पहले अधिकांश केंद्रों में टीबी की जांच नियमित नहीं की जाती है। जननांगों से जुड़ी टीबी के लक्षण पहले से स्पष्ट नहीं होते हैं। चिकित्सा विशेषज्ञों ने आईवीएफ से जुड़े औसतन 32 वर्ष की आयु वाली 72 महिलाओं से जुड़े मामलों पर अध्ययन किया। पता चला कि आईवीएफ गर्भधारण के 11 से 19 सप्ताह बाद इनमें टीबी के लक्षण दिखे। 38 फीसदी में मिलेरी टीबी पाई गई, जिसमें बैक्टीरिया रक्त प्रवाह के साथ शरीर में फैल जाते हैं और अंगों को प्रभावित करते हैं। इसी तरह 27 फीसदी में जननांग टीबी पाई गई।

यह महिलाओं में फैलोपियन ट्यूब और गर्भाशय को प्रभावित करती है। 14 फीसदी में केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सीएनएस) टीबी पाई गई। यह मतिष्क और रीढ़ की हड्डी व शरीर के अन्य अंगों पर असर करती है। टीबी से ग्रसित होने पर 79.5 फीसदी को उपचार दिया गया, जिसमें 8.2 फीसदी में दवा प्रतिरोधी (ड्रग रेजिस्टेंस) टीबी पाया गया। 73 महिलाओं में 55 ने जीवित बच्चों को जन्म दिया। इसमें 28 शिशु जीवित, जबकि 12 की मृत्यु हो गई और 15 के परिणाम अज्ञात रहे। 18 के गर्भपात हो गए। माताओं में तीन मृत्यु दर्ज की गई, जबकि अधिकांश ने उपचार से सुधार दिखाया।

अध्ययन करने वालों में एराज मेडिकल कॉलेज न्यूरोलॉजी विभाग के प्रो. आरके गर्ग के साथ केजीएमयू रेस्पेरेटरी विभाग के प्रो. राजीव गर्ग, सर्जरी विभाग के प्रो. अक्षय आनंद अग्रवाल, लोहिया संस्थान के डा. संजय सिंघल, और पीजीआईएमआर चंडीगढ़ के न्यूक्लियर मेडिसिन के डा. रजा अब्बास महदी शामिल हैं। इन चिकित्सा विशेषज्ञों ने उत्तर प्रदेश के साथ ही अन्य राज्यों की केस स्टडी आधारित शोधपत्रों का मूल्यांकन किया। यह रिपोर्ट एशियन जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन में प्रकाशित हुई है। विशेषज्ञों ने 73 मामलों और 7 कोहोर्ट अध्ययनों का विश्लेषण किया है।

नवजात शिशुओं में 39.7 फीसदी में जन्मजात टीबी

बच्चों पर भी पड़ा असर: आईवीएफ के बाद जिन महिलाओं में टीबी हुआ, उनके बच्चों में भी टीबी का असर पाया गया। नवजात शिशुओं में 39.7 फीसदी में जन्मजात टीबी, 34.2 फीसदी में माइलरी टीबी और 15.1 फीसदी में सीएनएस पाई गई। ऐसे बच्चों में जन्म के तत्काल बाद तेज बुखार, लेने में कठिनाई, हेपाटोस्प्लेनोमेगेली, सेप्सिस जैसे लक्षण देखे गए। कई मामलों में नवजात टीबी की पुष्टि गर्भनाल (प्लेसेंटा), यकृत या मस्तिष्क से प्राप्त नमूनों में हुई।

टीबी बढ़ने की वजह: प्रो आरके गर्ग ने बताया कि आईवीएफ के दौरान हार्मोन (एस्ट्रोजन, प्रोजेस्टेरोन) बढ़ जाते हैं। ये हार्मोन प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) को दबा देते हैं, जिससे शरीर में सुप्त टीबी सक्रिय हो जाती है। जिन महिलाओं में जननांग टीबी का इतिहास रहा है, उनमें यह जोखिम और अधिक बढ़ जाता है। नवजात में अस्पष्ट निमोनिया या सेप्सिस दिखे तो जन्मजात टीबी की जांच कराएं। लैटेंट टीबी यानी टीबी के जीवाणु शरीर में मौजूद हों और इसके लक्षण न दिखने की स्थिति पाई जाने पर पहले दवा से टीबी का इलाज किया जाए।

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