रचा गया इतिहास: वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे ने 50 दिनों में 25 लाख से भी अधिक पदों का किया पाठ
अहिल्यानगर (महाराष्ट्र) के 19 वर्षीय वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे ने हाल में काशी में शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन शाखा के लगभग 2000 मंत्रों का दण्ड क्रम पारायण सफलतापूर्वक पूर्ण किया। यह पारायण लगातार 50 दिनों तक बिना किसी व्यवधान के चला। वैदिक पारायण की सर्वोच्च विधि माना जाता है। देवव्रत की यह उपलब्धि न केवल त्रुटिरहित थी, बल्कि इसे सबसे कम समय में पूरा करने का कीर्तिमान भी स्थापित हुआ। इस असाधारण सिद्धि पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया दी।
अहिल्यानगर (महाराष्ट्र) के 19 वर्षीय वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे ने हाल में काशी में शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन शाखा के लगभग 2000 मंत्रों का दण्ड क्रम पारायण सफलतापूर्वक पूर्ण किया। यह पारायण लगातार 50 दिनों तक बिना किसी व्यवधान के चला। वैदिक पारायण की सर्वोच्च विधि माना जाता है। देवव्रत की यह उपलब्धि न केवल त्रुटिरहित थी, बल्कि इसे सबसे कम समय में पूरा करने का कीर्तिमान भी स्थापित हुआ। इस असाधारण सिद्धि पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया दी।
विस्तार
भारतीय संस्कृति की सबसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण पहचान यह है कि यहां ज्ञान कभी केवल पढ़ने या लिखने की विषय वस्तु नहीं रहा, अपितु यह साधना और जीवन-पद्धति की परंपरा रहा है। हमारे वेद, उपनिषद, पुराण, शास्त्र या दर्शन केवल लिखित ग्रंथ नहीं हैं। वे उस शाश्वत आत्मानुभव का परिणाम हैं, जिसे सहस्राब्दियों से ऋषि, मुनि और साधक अपने जीवन में निरंतर चरितार्थ करते रहे हैं। इसी कारण सनातन संस्कृति को ‘अखंड ज्ञान-धारा’ की संज्ञा दी जाती है। यह धारा समय के आघातों से कभी विच्छिन्न नहीं हुई, बल्कि प्रत्येक पीढ़ी में ऐसे तेजस्वी व्यक्तित्वों ने जन्म लिया, जिन्होंने इस ज्ञान को न केवल समझा और जिया, बल्कि पूर्ण निष्ठा के साथ अगली पीढ़ी तक संवर्धित किया।
इसी पावन परंपरा के आधुनिक संवाहकों में 19 वर्षीय वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाएगा। अहिल्यानगर (महाराष्ट्र) के वेदब्राह्मश्री महेश चंद्रकांत रेखे के पुत्र देवव्रत ने हाल में काशी में शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन शाखा के लगभग 2000 मंत्रों का दण्ड क्रम पारायण सफलतापूर्वक पूर्ण किया। यह पारायण, जो लगातार 50 दिनों तक बिना किसी व्यवधान के चला, वैदिक पारायण की सर्वोच्च विधि माना जाता है।
शृंगेरी मठ के अनुसार दण्ड क्रम अपनी जटिल स्वर-रचना और अत्यंत सूक्ष्म ध्वन्यात्मक क्रमों के कारण अत्यधिक कठिन है और ज्ञात इतिहास में यह मात्र तीन बार ही त्रुटिरहित रूप से संपन्न हुआ है। देवव्रत की यह उपलब्धि न केवल त्रुटिरहित थी, बल्कि इसे सबसे कम समय में पूरा करने का कीर्तिमान भी स्थापित हुआ। इस असाधारण सिद्धि पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं सोशल मीडिया पर लिखा, 'वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे की ये सफलता हमारी आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बनने वाली है।'
साधना और समर्पण की उच्चतम पराकाष्ठा का प्रमाण
यह उपलब्धि इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 'दण्ड कर्म पारायणम्' स्वयं में एक प्राचीन और विशिष्ट पौराणिक अनुष्ठान है, जो ज्ञान को एक कर्मकांडीय स्वरूप प्रदान करता है। यह अनुष्ठान, जिसका शाब्दिक अर्थ 'अनुशासन या दंड से संबंधित कर्मों का पाठ' है, मुख्य रूप से भगवान विष्णु की दमनकारी शक्ति का आह्वान करता है।
वैष्णव आगमों से प्रेरित यह क्रिया शत्रु दमन, जीवन की गंभीर बाधाओं और संकटों के निवारण के लिए की जाती है, जिसमें साधक विशिष्ट मंत्रों द्वारा दैवीय दंड (दण्ड अर्घ्य दान) को नकारात्मक शक्तियों पर लागू करने की प्रार्थना करता है। इस जटिल क्रिया को पूर्ण करना, देवव्रत के केवल मेधावी होने का नहीं, बल्कि साधना और समर्पण की उच्चतम पराकाष्ठा का प्रमाण है।
वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे के अध्ययन, विचार और अभिव्यक्ति में यह तथ्य स्पष्ट होता है कि उन्होंने वेदों और भारतीय दर्शन को केवल पठन-सामग्री के रूप में नहीं लिया, बल्कि उन्हें आत्मसात किया है। वेदांत, योग, सांख्य, वैदिक ज्योतिष, ध्यान परंपरा, संस्कार व्यवस्था और ब्रह्मांडीय चक्रों का उनका अध्ययन गहन है, फिर भी उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे इन दुरूह विषयों को अत्यंत सहज और सुगम भाषा में समझाते हैं, जिससे आम व्यक्ति भी वैदिक ज्ञान की आत्मा तक पहुँच सके। देवव्रत महेश रेखे के अनुसार वेद किसी प्राचीन काल की अवशेष मात्र नहीं हैं, बल्कि वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने हजारों वर्ष पहले थे।
आज के समय में जब मानव जीवन जटिलताओं, तनाव, असंतुलन और मानसिक भ्रम से घिरा हुआ है, वेद हमें यह बताते हैं कि जीवन केवल बाहरी सुखों का संग्रह नहीं, बल्कि एक आंतरिक यात्रा है। इसी आत्मिक दिशा को स्पष्ट करने वाले ग्रंथों की व्याख्या आधुनिक समाज के लिए अपरिहार्य है। दरअसल, भारतीय संस्कृति का आधारभूत तत्व ‘ऋषि-परंपरा’ है। ऋषि वह है जो केवल सूचना नहीं जुटाता, बल्कि ‘भीतर के सत्य’ को अनुभव करता है। इसलिए वेद मंत्रों को ‘श्रुति’ (जो सुने जाते हैं) कहा जाता, जो भीतर की साधना से अनुभवजन्य होते हैं। देवव्रत महेश रेखे इसी दृष्टि पर बल देते हैं कि ज्ञान की सच्ची प्रकृति सूचना या डाटा में नहीं, बल्कि आत्मानुभूति में निहित है।
मानसिक दबाव और असंतुलन का समाधान
उनका एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि वे वैदिक ज्ञान को आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान से भी जोड़ते हैं। उनके अनुसार मनुष्य आज जो भी मानसिक दबाव, असुरक्षा और असंतुलन झेल रहा है, उसका समाधान वेदों और उपनिषदों में निहित है। यह समाधान केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण है, जो शरीर, मन और आत्मा के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। उदाहरण के लिए, वेदों का ‘पंचतत्व’ सिद्धांत मानव शरीर और ब्रह्मांड की समान मौलिक संरचना की पुष्टि करता है, जिसे आधुनिक विज्ञान भी सिद्ध करता है। रेखे इन सिद्धांतों को सहज भाषा में समझाते हुए कहते हैं, 'वैदिक ज्ञान केवल परंपरा नहीं, बल्कि जीवन की व्यवहारिक आवश्यकता है।'
अन्य सभ्यताओं से व्यापक है भारतीय ऋषि-परंपरा
यदि विश्व की अन्य सभ्यताओं की ज्ञान-परंपराओं से तुलना करें तो भारतीय ऋषि-धारा की अद्वितीयता और स्पष्ट होती है। ग्रीस में सुकरात, प्लेटो और अरस्तू जैसे महान दार्शनिकों ने चिंतन को चरम पर पहुंचाया, लेकिन यह परंपरा केवल कुछ सदियों तक ही सीमित रही, क्योंकि इसमें सतत साधना-पद्धति का अभाव था। वहां ज्ञान का स्रोत अनुभव के बजाय तर्क और बहस था। मिस्र और मेसोपोटामिया का ज्ञान मुख्यतः प्रशासन और गणना तक सीमित रहा। चीन में कन्फ्यूशियस और लाओत्से ने नैतिकता पर बल दिया, लेकिन चेतना, आत्मा, ब्रह्म, अस्तित्व और मुक्ति जैसी उच्चतम आध्यात्मिक अवधारणाओं का गहन विश्लेषण भारतीय दर्शन की विशिष्टता रही है।
अन्य धार्मिक परंपराओं में भी अध्ययन का महत्व रहा है, लेकिन उनका केंद्र ज्यादातर कानून और धार्मिक नियमों की स्थिर व्याख्याएं रही हैं। इसके विपरीत, भारत में ज्ञान स्थिर नहीं है। यह जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव से सतत विकसित होता है। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि दुनिया की कोई भी संस्कृति भारतीय ऋषि-परंपरा जैसी व्यापक, गहन और अबाध ज्ञान-धारा प्रस्तुत नहीं करती। यही कारण है कि यह परंपरा आज भी न केवल जीवित है, बल्कि विश्वभर में अपना प्रभाव डाल रही है।
नई पीढ़ी के लिए महान प्रेरणा हैं रेखे
वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे इसी अद्वितीय धारा का आधुनिक विस्तार हैं। उनका कार्य केवल व्याख्या या अध्यापन नहीं, बल्कि आधुनिक युग में वैदिक चेतना का पुनरुत्थान है। वे नई पीढ़ी को समझाते हैं कि यदि जीवन में शांति और स्पष्टता चाहिए, तो अपने मूल स्रोत भारतीय ऋषि-परंपरा से जुड़ना होगा। उनके अनुसार तकनीक और विज्ञान जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही आवश्यक है कि मनुष्य अपने भीतर के संसार को भी समझे। जब भीतर और बाहर दोनों में संतुलन होता है, तभी जीवन पूर्णता की ओर बढ़ता है।देवव्रत महेश रेखे केवल एक विद्वान नहीं, बल्कि एक जीवित परंपरा के प्रतिनिधि हैं। वे हमें यह स्मरण कराते हैं कि भारतीय ऋषि-धारा ने ज्ञान को साधना, अनुभव और जीवन की उच्चतम चेतना से जोड़ा। वे इस ज्ञान को सरल, आधुनिक और सुगम भाषा में आगे बढ़ाकर नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का जो कार्य कर रहे हैं, वही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि और भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी शक्ति है।
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