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हिंदी हैं हम : अलीगढ़ में आनंदीलाल कहलाते थे नई कहानी के प्रवर्तक जैनेंद्र
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जैनेंद्र कुमार, साहित्यकार
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प्रेम कुमार ( वरिष्ठ साहत्यिकार)
2 जनवरी 1905। जनपद अलीगढ़ का कस्बा कौड़ियागंज। प्यारेलाल व रामदेवी बाई के घर में एक बेटे ने जन्म लिया। सकट चतुर्थी थी उस दिन, सो बच्चे का नाम मिला सकटुआ। बाद में पिता ने चेहरे की चमक और सुंदरता पर रीझकर नाम दिया आनंदीलाल। तब किसे मालूम था कि बच्चे का न यह नाम चलना है और न इसे कौड़ियागंज में रहना है। आनंदीलाल 2 वर्ष का हुआ ही था कि पिता चल बसे। परिवार में जैसे अंधेरा छा गया। मां बच्चे को लेकर उसके मामा के पास चली गई। मामा ने हस्तिनापुर के गुरुकुल में उसका प्रवेश करा दिया। गुरुकुल में नया नाम मिला जैनेंद्र कुमार। उसके बाद की कहानी शिक्षा-आजीविका के सिलसिले से जैनेंद्र कुमार के बिजनौर, बनारस, नागपुर, कलकत्ता-यानी यहां-वहां अटकने-भटकने से जुड़ी है।
बनारस विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया, लेकिन असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। पढ़ाई तो छूटी ही कारावास भी भुगतना पड़ा। पत्रकारिता करनी चाही। व्यापार में हाथ आजमाया, लेकिन सब व्यर्थ। मां की पहल और पसंद पर 1927 में भगवती देवी के साथ विवाह हो गया। दुख और निराशा के उन्हीं दिनों में लेखनी थामी। पहली कहानी जन्मी खेल। विशाल भारत में छपी। नाम तो हुआ ही वहां से 2 रुपये का मनीऑर्डर भी आया। हिम्मत मिली, विश्वास जगा।1927 में आए पहले कहानी संग्रह फांसी से मिली ख्याति ने तय करा दिया कि जैनेंद्र कुमार को लेखक ही बनना है। उसके बाद वातायन, नीलम देश की राजकन्या, दो चिड़िया, पाजेब, जयसंधि आदि संग्रहों में उनकी 300 से अधिक कहानियां आईं। 1927 में पहले उपन्यास परख के प्रकाशन में ख्याति और चर्चाओं को और अधिक बढ़ाया फैलाया। उसके बाद सुनीता, कल्याणी, त्यागपत्र, विवर्त, सुखदा, अनाम स्वामी, मुक्तिबोध, दशार्क आदि एक दर्जन से अधिक उपन्यास आए। कथा साहित्य के अलावा निबंध, आलोचना, संस्मरण, गद्य काव्य, बाल साहित्य, पत्रकारिता विषयक जैनेंद्र का लेखन भी अत्यंत समादृत हुआ। उनका निबंध लेखन अपेक्षाकृत अधिक बौद्धिक विचारक दार्शनिक व नागरिक दायित्वों के प्रति सजग दिखता है। इस लेखन पर उन पर गांधी, फ्रायड, मॉर्क्स, बुद्ध का प्रभाव भी स्पष्ट दिखता है।
साहित्य अकादमी का पुरस्कार, फेलोशिप और भारत भारती जैसे कई पुरस्कार उन्हें मिले। जैनेंद्र कुमार प्रेमचंद के साथ पास रहे, लेकिन अपने लेखन के लिए सर्वथा मौलिक और अलग रास्ता चुना। समय, समाज, व्यक्ति की समस्याओं से जूझे, पाठकों को उद्वेलित किया। कथ्य, भाषा, शिल्प के स्तर पर अछूते क्षेत्र तलाशे। स्त्री-पुरुष के निजी द्वंद्वों, तनावों, कुंठाओं, अतृप्तियों, विकृतियों, स्वप्नों, आदर्शों, मन-बुद्धि के स्तर के संघर्ष तथा परंपरा एवं रुढ़ियों के प्रति उसके नकार एवं विध्वंस की कामना को उन्होंने दृढ़ता के साथ व्यक्त किया। विरोध और विवाद भी खूब आमंत्रित किए उनके लेखन ने।
शब्दों से मनचाहा कहलवा लेने, संकेतों, बिंबों के सहारे नन्हे-नन्हे वाक्यों में जादुई अर्थ भर, उसे पाठक के हृदय तक पहुंचा देने में उन्हें महारत हासिल थी। अज्ञेय यदि उन्हें सर्वाधिक टेक्निकल मानते हैं या प्रेमचंद उन्हें भारत का गोर्की कहते हैं अथवा ज्योतिष जोशी उनकी लिखी जीवनी को नास्तिक आस्तिक नाम देते हैं तो इन सबका अपना खास अर्थ और महत्व है। कहानी के साथ नया शब्द जोड़कर जैनेंद्र कुमार ने सर्वप्रथम उसे नई कहानी कहा था। जैनेंद्र कुमार का निधन 24 दिसंबर 1988 को हुआ था। यह अलीगढ़ और धर्म समाज कॉलेज का सौभाग्य ही रहा कि उस श्रेष्ठ वक्ता का अंतिम से पहले का भाषण कॉलेज के पुस्तकालय भवन में हुआ था। आंख मूंदे योगी की मुद्रा में समाधिस्थ से मेज पर बैठे जैनेंद्र। किसी आकाश गंगा में से निकलकर डेढ़ घंटे से अधिक तक सर-सर बहता शब्द निर्झर। जिसने भी वह दिव्यवाणी सुनी, उस दिन की याद ने हमेशा उसे तृप्त किया।
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2 जनवरी 1905। जनपद अलीगढ़ का कस्बा कौड़ियागंज। प्यारेलाल व रामदेवी बाई के घर में एक बेटे ने जन्म लिया। सकट चतुर्थी थी उस दिन, सो बच्चे का नाम मिला सकटुआ। बाद में पिता ने चेहरे की चमक और सुंदरता पर रीझकर नाम दिया आनंदीलाल। तब किसे मालूम था कि बच्चे का न यह नाम चलना है और न इसे कौड़ियागंज में रहना है। आनंदीलाल 2 वर्ष का हुआ ही था कि पिता चल बसे। परिवार में जैसे अंधेरा छा गया। मां बच्चे को लेकर उसके मामा के पास चली गई। मामा ने हस्तिनापुर के गुरुकुल में उसका प्रवेश करा दिया। गुरुकुल में नया नाम मिला जैनेंद्र कुमार। उसके बाद की कहानी शिक्षा-आजीविका के सिलसिले से जैनेंद्र कुमार के बिजनौर, बनारस, नागपुर, कलकत्ता-यानी यहां-वहां अटकने-भटकने से जुड़ी है।
बनारस विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया, लेकिन असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। पढ़ाई तो छूटी ही कारावास भी भुगतना पड़ा। पत्रकारिता करनी चाही। व्यापार में हाथ आजमाया, लेकिन सब व्यर्थ। मां की पहल और पसंद पर 1927 में भगवती देवी के साथ विवाह हो गया। दुख और निराशा के उन्हीं दिनों में लेखनी थामी। पहली कहानी जन्मी खेल। विशाल भारत में छपी। नाम तो हुआ ही वहां से 2 रुपये का मनीऑर्डर भी आया। हिम्मत मिली, विश्वास जगा।1927 में आए पहले कहानी संग्रह फांसी से मिली ख्याति ने तय करा दिया कि जैनेंद्र कुमार को लेखक ही बनना है। उसके बाद वातायन, नीलम देश की राजकन्या, दो चिड़िया, पाजेब, जयसंधि आदि संग्रहों में उनकी 300 से अधिक कहानियां आईं। 1927 में पहले उपन्यास परख के प्रकाशन में ख्याति और चर्चाओं को और अधिक बढ़ाया फैलाया। उसके बाद सुनीता, कल्याणी, त्यागपत्र, विवर्त, सुखदा, अनाम स्वामी, मुक्तिबोध, दशार्क आदि एक दर्जन से अधिक उपन्यास आए। कथा साहित्य के अलावा निबंध, आलोचना, संस्मरण, गद्य काव्य, बाल साहित्य, पत्रकारिता विषयक जैनेंद्र का लेखन भी अत्यंत समादृत हुआ। उनका निबंध लेखन अपेक्षाकृत अधिक बौद्धिक विचारक दार्शनिक व नागरिक दायित्वों के प्रति सजग दिखता है। इस लेखन पर उन पर गांधी, फ्रायड, मॉर्क्स, बुद्ध का प्रभाव भी स्पष्ट दिखता है।
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साहित्य अकादमी का पुरस्कार, फेलोशिप और भारत भारती जैसे कई पुरस्कार उन्हें मिले। जैनेंद्र कुमार प्रेमचंद के साथ पास रहे, लेकिन अपने लेखन के लिए सर्वथा मौलिक और अलग रास्ता चुना। समय, समाज, व्यक्ति की समस्याओं से जूझे, पाठकों को उद्वेलित किया। कथ्य, भाषा, शिल्प के स्तर पर अछूते क्षेत्र तलाशे। स्त्री-पुरुष के निजी द्वंद्वों, तनावों, कुंठाओं, अतृप्तियों, विकृतियों, स्वप्नों, आदर्शों, मन-बुद्धि के स्तर के संघर्ष तथा परंपरा एवं रुढ़ियों के प्रति उसके नकार एवं विध्वंस की कामना को उन्होंने दृढ़ता के साथ व्यक्त किया। विरोध और विवाद भी खूब आमंत्रित किए उनके लेखन ने।
शब्दों से मनचाहा कहलवा लेने, संकेतों, बिंबों के सहारे नन्हे-नन्हे वाक्यों में जादुई अर्थ भर, उसे पाठक के हृदय तक पहुंचा देने में उन्हें महारत हासिल थी। अज्ञेय यदि उन्हें सर्वाधिक टेक्निकल मानते हैं या प्रेमचंद उन्हें भारत का गोर्की कहते हैं अथवा ज्योतिष जोशी उनकी लिखी जीवनी को नास्तिक आस्तिक नाम देते हैं तो इन सबका अपना खास अर्थ और महत्व है। कहानी के साथ नया शब्द जोड़कर जैनेंद्र कुमार ने सर्वप्रथम उसे नई कहानी कहा था। जैनेंद्र कुमार का निधन 24 दिसंबर 1988 को हुआ था। यह अलीगढ़ और धर्म समाज कॉलेज का सौभाग्य ही रहा कि उस श्रेष्ठ वक्ता का अंतिम से पहले का भाषण कॉलेज के पुस्तकालय भवन में हुआ था। आंख मूंदे योगी की मुद्रा में समाधिस्थ से मेज पर बैठे जैनेंद्र। किसी आकाश गंगा में से निकलकर डेढ़ घंटे से अधिक तक सर-सर बहता शब्द निर्झर। जिसने भी वह दिव्यवाणी सुनी, उस दिन की याद ने हमेशा उसे तृप्त किया।