अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
उन में जा कर मगर रहा न करो
- मुनीर नियाज़ी
ग़ुस्से में बरहमी में ग़ज़ब में इताब में
ख़ुद आ गए हैं वो मिरे ख़त के जवाब में
- दिवाकर राही
अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन
-साक़ी फ़ारुक़ी
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
यूँ भी अक्सर बहार आई है
- हबीब अहमद सिद्दीक़ी
Urdu Poetry: कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से