Urdu Poetry: हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते

अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली 

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बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते
- मजरूह सुल्तानपुरी

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यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
- जिगर मुरादाबादी

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तेरे जल्वों ने मुझे घेर लिया है ऐ दोस्त
अब तो तन्हाई के लम्हे भी हसीं लगते हैं
- सीमाब अकबराबादी

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हम अपनी धूप में बैठे हैं 'मुश्ताक़'
हमारे साथ है साया हमारा
- अहमद मुश्ताक़ 

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Urdu Poetry: अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे

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