अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
मकतब-ए-इश्क़ का दस्तूर निराला देखा
उस को छुट्टी न मिले जिस को सबक़ याद रहे
- मीर ताहिर अली रिज़वी
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबाँ आते आते
- दाग़ देहलवी
हर एक रात को महताब देखने के लिए
मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए
- अज़हर इनायती
मैं आ गया हूँ वहाँ तक तिरी तमन्ना में
जहाँ से कोई भी इम्कान-ए-वापसी न रहे
- महमूद गज़नी
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