अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का
- शहरयार
इधर फ़लक को है ज़िद बिजलियाँ गिराने की
उधर हमें भी है धुन आशियाँ बनाने की
- अज्ञात
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया
- उमैर मंज़र
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएँगे
- बिस्मिल अज़ीमाबादी
Urdu Poetry: इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं