अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे
तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा
- अहमद फ़राज़
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
- साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
ज़रा उम्र-ए-रफ़्ता को आवाज़ देना
- सफ़ी लखनवी
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते
- मजरूह सुल्तानपुरी
Urdu Poetry: आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो