अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
- अकबर इलाहाबादी
यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम
- मीर तक़ी मीर
नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी
तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम
- जौन एलिया
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता
- अकबर इलाहाबादी
Urdu Poetry: इश्क़ में कुछ नज़र नहीं आया