अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर'
उदासी बाल खोले सो रही है
- नासिर काज़मी
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना
- सलीम अहमद
शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में
- गुलज़ार
कहीं कोई चराग़ जलता है
कुछ न कुछ रौशनी रहेगी अभी
- अबरार अहमद
Urdu Poetry: मंज़िल की जुस्तुजू है तो जारी रहे सफ़र