अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया
- नासिर काज़मी
हज़रत-ए-दाग़ जहाँ बैठ गए बैठ गए
और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
- दाग़ देहलवी
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
तालों की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
- अज़हर फ़राग़
हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा'द ये मा'लूम
कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी
- अहमद फ़राज़
Urdu Poetry: ये चाँद किस को ढूँढ़ने निकला है शाम से