अमर उजाला
Tue, 21 October 2025
पहले इस में इक अदा थी नाज़ था अंदाज़ था
रूठना अब तो तिरी आदत में शामिल हो गया
~ आग़ा शाएर क़ज़लबाश
आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन
मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है
~ अमीर मीनाई
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
बस इक निगाह पे ठहरा है फ़ैसला दिल का
~ असद अली ख़ान क़लक़
दुश्मन के घर से चल के दिखा दो जुदा जुदा
ये बाँकपन की चाल ये नाज़-ओ-अदा की है
~ बेख़ुद देहलवी
Urdu Poetry: सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती