यह समीक्षा डॉ.राहुल ने लिखी है-
बीसवीं सदी का प्रतिनिधित्व करने वाले यशस्वी कवि डॉ.रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि कविताओं का सद्य प्रकाशित संग्रह मेरे हाथ में है। इसमें कुल जमा 130 कविताएं संकलित हैं। बहुत अर्से बाद मिश्र जी की काव्यगत रचनात्मकता से रूबरू हुआ। सुखद अनुभूति हुई। क्योंकि इधर अच्छी कविताएं लिखी नहीं जा रहीं और जो कुछ यत्र तत्र प्रकाशित हुई हैं उनमें कविता कम, वैचारिक प्रहार अधिक दिखता है। किसी कविता के काल के अनन्त पथ पर अग्रसर होने-न-होने के ठोस कारणों पर विचार-विश्लेषण कहीं हुआ हो तो मुझे खेद है, वह मेरे संज्ञान में नहीं। मगर मेरे मत में यह जानना असली और असरदार कविता की पहचान के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि वह क्या है जिसे कवि अपने शाश्वत काव्यबोध के केंद्र में रखता है। क्योंकि अक्सर प्रचार-और विज्ञापन की रणनीति के कारण असली कविता उपेक्षित-सी रह जाती रही है। इस अर्थ में काव्यालोचकों में रामदरश मिश्र की कविता के साथ न्याय नहीं किया है। किन्तु मिश्र जी की कविताओं को पढ़कर निस्संदेह आश्वस्त हुआ जा सकता है कि ये कविताएं व्यक्ति-समाज, जीवन-जगत,परिवेश-मिथक,व्यतीत-वर्तमान-भविष्य,प्रकृति-पुरुष, नर-नारी विषयक विचार-वाक् की जितनी सशक्त संवेदनपरक अभिव्यक्ति संभव हो सकती है, इस संग्रह की कविताओं में वह सब महसूस होती है। हिंदी के सुधी कवि आलोचक डॉ ओम निश्चल ने अपनी एक आत्मीय भूमिका के साथ उनकी इन कविताओं को प्रस्तुत किया है जिससे इनके वैशिष्ट्य की गांठ धीरे धीरे खुलती जाती है।
कविवर रामदरश मिश्र की कविता को प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, स्वच्छन्दतावादी, यथार्थवादी प्रवृत्तियों के द्वन्द्व की कविता न कहकर एक शब्द में 'जनवादी' कहना अधिक अर्थवान होगा। उसके मनस-अक्स नितान्त नये-निराले हैं। ये कवि-मन से उठे-उभरे सामूहिक मन के विस्तृत कैनवास पर रेखांकित हुए हैं-इनमें जीवन्त और अद्भुत चित्रात्मकता है। कमल खिले/ बच्चे किलके/ सुन्दरियां बिहंसीं/ लगा कि मैं ही/हंसी-हंसी में तैर रहा हूं। (पृष्ठ39) कितनी सहजता है उनके इस कथन में। ये कटु यथार्थ की विचित्र-विलक्षण व्यंजना करते हैं। इस वाक्-व्यंजना को जितना सहज और लोक - मुहावरों की फैंसी व्यंग्य-विधि- शैली में सम्प्रेषित करना संभव हो सकता है, वैसा यहां महसूस होता है-
आखिर जाता कहां?
मैं गमले का फूल तो नहीं
कि एक सुरक्षित कमरे से दूसरे कमरे में रख दिया
जाऊं
मैं तो एक पेड़ हूं एक खास जमीन में उगा
हुआ/आंधियां आती हैं/ लें चलती हैं
ओले गिरते हैं/ पेड़ हहराता है,कांपता है
डालियां और फल-फूल टूटते हैं
लेकिन वह हर बार अपने में लौट आता है
ये हांफते हुए गड्ढे... (पृष्ठ 66-67)
यहां कवि के ईमान और पैनी प्रतिभा के चमत्कार का प्रदर्शन होता है। क्लासिकी और रोमानी काव्य- परम्परा की मिली-जुली ध्वनियां-प्रतिध्वनियां संवेदन से सीधा सम्बन्ध कायम करके गाढ़े काव्यास्वादन की अनुभूति कराती हैं। मानसिक तन्तुओं में झनझनाहट जगाती हैं।कहीं-कहीं अकथनीय अनुभवों का सहज भावबोध भी उजागर करती हैं। चूंकि कवि का अध्ययन-चिन्तन-मनन गहन व व्यापक है। उसका काव्यबोध युंग और मार्क्स की अवधारणाओं को आत्मसात करके उसमें अपनी मौलिक चिन्तनों का प्रत्यारोपण करने का सफल संधान करता है। इसलिए कविताओं के अनेक अंशों में कुछ ऐसा ही रहस्यात्मक उन्मेष है।
कितनी छायाएं झरती थीं
किरणें कुमकुम रचती थीं
थर्राती थी सतह स्वरों से
मुक्त वीचियां नचती थीं
बीत रहा है दिन
जल दर्पन बड़ा अकेला लगता है। (पृष्ठ 92)
बेशक,अनुभूतियों के उच्च-उदात्त धरातल पर ऐसा काव्यबोध कम कवियों की कविताओं में होता है। उनकी कविताएं ऊर्ध्व-ऊर्जस्विनी लगती है, भव्य भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है। कृति की कुछ कविताएं आत्मकथात्मक अंदाज में अपना आहंग आत्मा तक पहुंचाने में सक्षम हैं। इन कविताओं की खासियत यह है कि ये बहुतेरी कविताओं से अलग लगती हैं और अपने होने की अहमियत का कहीं न भुलाया जाने वाला अहसास भी कराती हैं । कवि-मन में गांव आज भी रचा बसा हुआ है-
कविता का घना प्रभाव रहा
पैसे का सदा अभाव रहा
रहने को रहा शहर में वह
पर उसमें उसका गांव रहा। (पृ.132)
गंवई परिवेश का एक अन्य भाव-बिम्ब इस शब्दों में व्यक्त हुआ है-गेंदे के बड़े-बड़े जीवन्त फूल/
बेरहमी से तोड़ लिए गए/और बाजार में आकर बिकने लगे/बाजार से खरीदे जाकर वे/पत्थर के
चरणों पर चढ़ा दिए गए/फिर फेंक दिए गए कूड़े की तरह/ मैं दर्द से भर आया.../ मैं उनके बीच बैठकर संवाद करता हूं।/वे अपनी सुगन्ध और रंगों की भाषा में/ मुझे वसन्त का गीत सुनाते हैं/और मैं उनसे कहता हूं/ "जिओ मित्रो"/पूरा जीवन, जिओ उल्लास के साथ/अब न यहां बाजार आएगा/और पत्थर के देवता पर तुम्हें चढ़ाने के लिए धर्म/यह कवि का घर है। (पृष्ठ133) बाजारवाद के इस समय में शायद यही कवि का बाजार के विरुद्ध प्रतिरोध है।
प्रतिनिधि कविताओं से रामदरश मिश्र की सात दशकों की काव्य यात्रा की पूरीछवि सामने आ जाती है। गीत, कविताएं, गजल, मुक्तक, रुबाई सबका आस्वादन यहां किया जा सकता है। इन कविताओं का कैनवास छोटे-बड़े चित्रों से सजा है। कवि बौद्धिक और आत्मिक दोनों अनुभूतियों की जीता हुआ जनजीवन-जगत की दीन-हीन दशाओं का चित्रण करता है। आम आदमी या दीन-दलित का दर्द उभरता है और नयी पर प्रबल प्रतिभा को प्रकाशित करता हुआ सृजन-सामर्थ्य से जीवन्त बिम्बों को प्रस्तुत करता है- किस बच्चे की है यह नन्ही- सी चप्पल पड़ी है आंगन में?/बाजार में तो ये वस्तु होती है/ लेकिन घर आते ही व्यक्ति बन जाती है/ उस पर अंकित हो जाता है/ किसी पांव का नाम/और न जाने कितने आत्मीय स्पर्श/ भर जाते हैं किसी के सुख-दुख के। (पृष्ठ 101) कवि कुंठा-असफलता के इस दौर में भी सकारात्मक सोच से परिचालित होता है। कहीं- कहीं इन कविताओं में विचार है,संदेश है, नयी दृष्टि है, दिशा है। इतना इतरा क्यों रहे हैं/माना कि आप बड़े शिखर हैं। लेकिन आस-पास जो/अनेक छोटे-छोटे शिखर फैले हुए हैं, उनकी/अहमियत कम तो नहीं! वे हैं इसलिए बड़े हैं/आप उन्हीं के सामूहिक बल पर/तन कर खड़े हैं। (पृ.129) यह कटाक्ष, यह वक्रता भी उनकी कविताओं की उनके मिजाज की एक अनन्य विशेषता है।
इन कविताओं में कहीं मिथ भी हैं पर वैदेशिक व्यापार का अक्स-अनुभव नहीं होता। वह संस्कार से शुद्ध रूप से भारतीय है। समकालीन स्यूडो-समाजी सियासी सर्जनात्मक स्थितियों पर किंचित प्रहार के बिम्ब भी उभरे हैं, उसकी मुद्रा आक्रोशमयी नहीं, किन्तु अहं पर चोट जरूर करती है। नारी-बोध, व्यंग्य-ध्वनि द्वारा वह गौरव की चेतना को जगाने वाली है।
संग्रह में कुछ ग़ज़लें, कुछ मुक्तक भी संकलित हैं। ग़ज़लों में समसामयिक भाव की विशदता है। हिंदी ग़ज़लों को उन्होंने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। उसमें प्रयुक्त विविध बिम्ब सही-सधी-सच्ची जीवन-शैली और नुकीले दृश्य-परिदृश्य को उद्घाटित करते हैं और ग़ज़लों के तथाकथित कोलाहल में अपने सधे और संयमित स्वर का उद्धोष करते हैं। शुद्ध अंत:करण से इन ग़ज़लों का आस्वाद लिया जाए तो इनमें से कविता के प्राणवान स्फुलिंग फूटते दिखते हैं। यह विचार- भाव के द्वन्द्व से चेतना-चिन्तनधारा के तीव्र प्रवाह में मस्तिष्क को समतल से ऊर्ध्व और ऊर्ध्व से ऊर्ध्वतर बहा ले जाने की क्षमता रखती हैं। कुल मिलाकर यह कृति मिश्र जी के कवि-जीवन की एक श्रेष्ठतर काव्योपलब्धि लगती है। कविताओं के बेहतरीन चयन और सुगठित भूमिका के लिए डॉ ओम निश्चल को भी साधुवाद।
(समीक्षक सुधी कवि-समालोचक हैं)
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2 वर्ष पहले
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