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11 साल की उम्र में पहली ग़ज़ल लिखने वाले कैफ़ी साहब के शेर

साहित्य
                
                                                         
                            ज़मींदार पिता चाहते थे कि बेटा (कैफ़ी आज़मी) बड़ा होकर मौलाना बने लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। कैफ़ी ग़रीब और मजदूरों के हक़ में लड़ना चाहते थे। वह मानव समुदाय में समानता की अलख जगाना चाहते थे। पिता ने उन्हें हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हालांकि उनका थोड़ा शायरी के प्रति झुकाव कम था। एक बार बचपन में पिता ने उन्हें एक गीत की एक लाइन बताकर कहा कि इस पर अपने दिल के उद्गार व्यक्त करो। इसे ग़ज़ल में बदलो। होना क्या था बालक कैफ़ी को मौक़ा मिल गया और उन्होंने इसे बड़ी शिद्दत से पूरा भी किया। उन्होंने इस पर एक ख़ास अदब की ग़ज़ल रच डाली।
                                                                 
                            

कैफ़ी आज़मी का असली नाम अख्तर हुसैन रिजवी था। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के छोटे से गांव मिजवां में 14 जनवरी 1919 में जन्मे। गांव के भोलेभाले माहौल में कविताएं पढ़ने का शौक लगा। भाइयों ने प्रोत्साहित किया तो खुद भी लिखने लगे। 11 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिखी। 1936 में कैफ़ी साम्यावादी विचारों के संपर्क में आए और प्रभावित होकर उसकी सदस्यता भी ग्रहण कर ली और तय किया कि सामाजिक संदेशों के लिए ही लेखनी का प्रयोग करेंगे। वर्ष 1973 में ब्रेनहैमरेज से लड़ते हुए जीवन को एक नया दर्शन मिला - बस दूसरों के लिए जीना है। अपने गांव मिजवां में कैफी ने स्कूल, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस और सड़क बनवाने में मदद की। उत्तर प्रदेश सरकार ने सुल्तानपुर से फूलपुर सड़क को कैफ़ी मार्ग घोषित किया है। 10 मई 2002 को कैफ़ी साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।  पेश है कैफ़ी आज़मी के चुनिंदा शेर- 

आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ 
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में 

बस इक झिजक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में 
कि तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फ़साने में 
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3 वर्ष पहले

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