हिंदी कविता के मूर्धन्य हस्ताक्षर श्रीकान्त वर्मा अपने लेखन में जितना दबंग और आक्रामक लगते थे, उनसे मिलकर विपरीत प्रभाव पड़ता था। रवीन्द्र कालिया अपनी किताब ग़ालिब छुटी शराब में लिखते हैं कि “मैंने उन्हें हमेशा अत्यन्त संकोचशील, दब्बू और विनम्र ही पाया। उत्तेजित होते तो बच्चों की तरह उनके गाल सुर्ख़ हो जाते। उनकी रचना में उनका जो तेवर नज़र आता, वह मिलने पर दूर-दूर तक दिखायी न देता। अक्सर वह अपने से ही जूझते दिखायी देते।"
आगे कालिया लिखते हैं कि "मेरा उनसे गहन सम्पर्क कभी नहीं रहा, मगर मैंने जब-जब संवाद किया, वह गर्मजोशी से मिले। जब श्रीकान्त जी से मुलाक़ात हुई वह राजनीति के शिखर पर पहुंच चुके थे। इन्दिरा जी उन्हें पसंद करती थीं और वह उन्हें राज्यसभा ले गयी थीं। वह मन्त्रिपरिषद् में भी शामिल हो गए होते, अगर एक ग़लतफ़हमी न पैदा हो गयी होती।
इस बात को मेरे अलावा बहुत कम साहित्यिक बन्धु जानते होंगे। श्रीकान्त जी को भी इसकी जानकारी न होगी कि उनसे क्या ख़ता हो गयी कि उनको मन्त्रिपरिषद में स्थान न मिला। वह पर्यटन और संस्कृति विभाग में राज्यमन्त्री होना चाहते थे। हो भी गये होते, मगर इस बीच किसी ने संजय गांधी को ग़लत सूचना दे दी कि श्रीकान्त वर्मा न्यायमूर्ति जगमोगन सिन्हा के जाति भाई हैं।
जब से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा ने इन्दिरा जी के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया था, संजय गांधी उनके समूचे समाज के विरुद्ध हो गए थे और इसके पीछे एक गहरा षड्यन्त्र देख रहे थे। मुझे इस बात की भनक जे.एन. मिश्र से लगी जो उन दिनों संजय गांधी के सबसे विश्वस्त व्यक्ति थे।"
साभार - ग़ालिब छुटी शराब
भारतीय ज्ञानपीठ
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