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वीरेन्द्र वत्स अपनी कविता में दुखद यथार्थ रेखांकित करने का साहस प्रदर्शित करते हैं : विजय बहादुर सिंह

पुस्तक समीक्षा
                
                                                         
                            वीरेन्द्र वत्स के नए काव्य संग्रह 'तू जीत के लिए बना' पर देश के जाने-माने आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह जी की टिप्पणी
                                                                 
                            
 

कवि अगर अपने समय का संस्कृति-पुरुष है तो कविता उसके द्वारा रची गई सांस्कृतिक थाती। यह संस्कृति क्या है, अगर कोई जिज्ञासा ही कर बैठे तो तमाम तरह से सोच-विचार कर अंतत: कहना यही पड़ेगा कि एक ऐसा युग-सत्य जमाना जिससे आँख बचाकर उन राहों की ओर निकल जाना चाहता है जिन्हें सफलता की राहें कहा और माना जाता है। पर ये ‘राहें’ सत्य और सार्थकता की राहें भी कभी मानी जाएँगी कि नहीं, कहना कठिन है। इसीलिए एक कवि का कहना भूलता ही नहीं कि समय के सघन अँधेरों में जब सारी आवाजें खामोश हो जाती हैं, तब जो एक आवाज किसी चीख या पुकार या आवाहन/उद्बोधन के रूप में सारे जमाने में सुनाई देती है, वही कवि की आवाज होती है। 

इसका यह तात्पर्य बिल्कुल नहीं कि झूठी आवाजों का अपना कोई वजूद नहीं होता है पर वह इतना उथला और सतही होता है जैसे इन दिनों के अखबार या मीडिया चैनल हो गए हैं। ये मुनाफे की वे चमकीली जगहें हैं जो दरबारदारी के रंग में रंगी हुई हैं। उन्हें झूठ से कोई खास परेशानी नहीं है। पर कविता तो झूठ को अफोर्ड ही नहीं कर सकती। इसलिए वीरेन्द्र वत्स जैसे कवि जब यह लिखते हैं कि कविता सत्य का प्रबल प्रवाह है, तब वे यह भी याद दिलाते हैं कि सत्य का दूसरा नाम कविता है या कविता का पहला नाम सत्य है। महाकवि तुलसी तब सहज ही याद हो आते हैं- ‘सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।’ गाँधी तो कविता और सत्य को अगल-बगल बिठाकर कहते हैं - सच बोलना ही कविता है।

ऐसे सच को बोलने के लिए कवि में जिस ईमान और साहस का जरूरत पड़ती है, उसका प्रमाण कवि द्वारा प्रतिबिम्बित वह जीवनानुभव हुआ करता है, जो उसकी कविता में काव्यानुभव के रूप में दर्ज होता चलता है। वीरेन्द्र वत्स के ये जीवनानुभव हमारे इसी समय और लोक के है, जिनमें हमारी अपनी प्रत्यक्ष उपस्थिति है। न केवल एक दर्शक के रूप में बल्कि साधे-सीधे भागीदार की तरह। हमारे उस लोकतन्त्र में, हमारी अपनी नागरिकता के साथ, जिसे हमारे जन-प्रतिनिधियों ने विवश प्रजात्व में ढाल दिया है। कवि वीरेन्द्र वत्स की कविताएँ इसीलिए हमारी उस विस्मृत नागरिकता की पुकार हैं, जिसके होश में आने पर कोई देश सचमुच देश बनता है और उसके द्वारा स्वीकृत लोकतन्त्र सचमुच लोक का अपना तन्त्र बनता है। आगे पढ़ें

2 सप्ताह पहले

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