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इतिहास का जागा स्वर

                
                                                         
                             चल पड़ा वीर अनजानी राहों पर, न हाथ में तलवार थी,
                                                                 
                            
पर मन में जो ज्वाला थी वो, सौ सूरजों पर भारी थी।
ना थी सेना, ना था साया, पर जोश समंदर जैसा था,
एक प्रण था बस हृदय तले, भारत को देना उसका भास्वर अतीत फिर से वापस।
जिस भूमि ने जन्मा पृथ्वीराज, जिसकी गाथा अमर हुई,
उसके वीर अस्थि-चिह्नों को, राणा ने फिर यात्रा दी।
दूर देश की छांव में जो सोये थे, अब जागे हैं,
भारत माता की गोदी में, फिर से अपने भाग्य सजे हैं।
हर पग पर संकट की छाया, लेकिन वो ना डिग पाया,
माटी के कण-कण में राणा, अपना दीप जला आया।
उसकी सांसों में बसी थी, धड़कन कोई और नहीं,
वो चलता था भारत बनकर — उसका कुछ भी था छोर नहीं।
जब बात उठी उस काली रात की, फूलन की करुण कहानी की,
तब प्रश्न बने कुछ तीर जैसे, उस राणा की जवानी की।
पर न्याय नहीं शब्दों से होता, ना केवल अंश कथाओं से,
वो दोषी हो भी सकता है, पर न्याय चाहिए प्रमाणों से।
क्या सिर्फ वही? कोई और नहीं? क्यों एक निशाने पर खड़ा?
जब सच अधूरा, तब हर निर्णय अधूरा रह जाता सदा।
ना हम जज हैं, ना वकील, पर दिल ये इतना जान गया —
जिसने पृथ्वीराज लौटाया, वो सपूत महान गया।
गौरव का दीप जलाकर वो, इतिहास को जीवंत कर गया,
शेर दिलों की शेर कहानी, फिर जन-जन के बीच मर गया।
उसका नाम नहीं सिर्फ कथा है, उसकी चाल नहीं बस बात,
वो लहू में गूंजे देशभक्ति — हर शौर्य प्रेमी की सौगात।
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4 सप्ताह पहले

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