नसीब को न कोई अब तो इल्तिज़ा से ग़रज़
कोई तो पास आकर कहे दुआ से ग़रज़।।
बला हो साथ कही सब कहे जमाना भी
तो खुद को कहीं हैं जरूरतें खुदा की ग़रज़।।
नज़र झुका के चलो के मगर वफ़ा से ग़रज़
अभी से खार हैं नफ़रत का हैं खपा से गरज।।
कहीं तो घात हैं दुश्मन से भी चला जो सफ़र
जवाब की न शरण मगर तयसुदा की ग़रज़।।
नहीं जो दिल को भी जाने वो मयकदा से ग़रज़
सभी को यार जमाने में भी दवा की ग़रज़।।
-कनक
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