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गाँव की दुर्दशा

                
                                                         
                            गांव की दुर्दशा।।
                                                                 
                            

आधा ख्वाब अधूरा गाँव,
जहाँ पीर भरी पगडंडी है,
घायल नदियाँ दुखती छाँव,
रीती पनघट की हंडी है।

बदरी मुख मोड़ गई,
ताल पोखरें सूखी हैं,
लू भरि पवन चली,
निष्ठुर धूप बरसती है।

सूखे सुखे से पेड़ खड़े हैं,
हरित पत्तियाँ कुमलाई हैं,
रूखी रूखी हरियाली में,
तपती धूल यहाँ उड़ती है।

नदी किनारे छोड़ गई,
तट की रेत यहाँ तपती है।
बंजर धरती पजर गई,
रात मृगी आकुल फिरती है।

तीतर-तीतर बच्चों का
गाँव गली कोहराम नहीं है,
क्यों हँसी खेल सब रूठ गए,
चच्चों का भी साथ नहीं है।

गाँव की रौनक बुझी-बुझी,
जैसे कोई शृंगार नहीं है,
उन गली मोहल्लों में भरी उदासी,
जैसे घर में कोई इंसान नहीं है।
- अवध बिहारी मिश्र
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
1 सप्ताह पहले

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