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गांव चलते हैं

                
                                                         
                            चलो अब साथ-साथ चलते हैं
                                                                 
                            
छोड़कर शहर गांव चलते हैं
है सब कुछ मगर उदासी है
देखिए सुबह तक रुऑसी है
व्यस्तता है उबन है धोखा है
तरबतर जिंदगी को सोखा है
आज सब कुछ भुला के चलते हैं
छोड़कर शहर गांव चलते हैं
न दिन होता ना रात होती है
हर घड़ी भाग दौड़ होती है
चीख चिल्लाहटों का रेला है
भीड़ है आदमी अकेला है
ऐसी निर्मम शहर से चलते हैं
छोड़कर शहर गांव चलते हैं
खो गया प्यार इसकी गलियों में
दर्द खिलता यहां पे कलियों में
गीत लुटते रहे चौराहे पर
हादसा रोज ही चौराहे पर
आज अपनों के पास चलते हैं
छोड़कर शहर गॉव चलते हैं
-नवल किशोर भट्ट
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1 सप्ताह पहले

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