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Hindi Poetry: श्रीकांत वर्मा की कविता- धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे केश

कविता
                
                                                         
                            धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
                                                                 
                            
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहचानते हैं ।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन पर झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है ।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहचानते हैं ।

और मैं कितनी शती से यहाँ तुझको जोहता हूँ ।
आह !

तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं ।
प्राण! तूने नहीं पहचाना मुझे ।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगों से बन्द बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी ।
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया ।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किन्तु तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं । आगे पढ़ें

19 घंटे पहले

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