नक़ाब आम जीवन में भी कई अर्थों में प्रयुक्त होता आया है, शायरी में भी इस शब्द का इस्तेमाल बड़े रोचक ढंग से हुआ है। नक़ाब चाहे चेहरे पर हो या व्यकित्व पर, असलियत को छुपाय़े रखता है। देखते हैं कि शायरी में नक़ाब कैसे आता है। पेश है 'नक़ाब' पर शायरों के दिलचस्प अल्फ़ाज़-
आंखें ख़ुदा ने दी हैं तो देखेंगे हुस्न-ए-यार
कब तक नक़ाब रुख़ से उठाई न जाएगी
-जलील मानिकपुरी
अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तिरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर सँभल न जाए
-अनवर मिर्ज़ापुरी
नक़ाब उन ने रुख़ से उठाई तो लेकिन
हिजाबात कुछ दरमियाँ और भी हैं
-फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली
हिजाब उस के मिरे बीच अगर नहीं कोई
तो क्यूँ ये फ़ासला-ए-दरमियाँ नहीं जाता
-फ़र्रुख़ जाफ़री
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