मैं घूमूंगा केन किनारे
यों ही जैसे आज घूमता
लहर-लहर के साथ झूमता
सन्ध्या के प्रिय अधर चूमता
दुनिया के दुख-द्वन्द्व बिसारे
मैं घूमूंगा केन किनारे
अपने क्षेत्र की नदी के साथ घूमते हुए घूमते हुए यूं प्रकृति का चित्रण वही ह्र्दय कर सकता है जिसने उसकी जीवंतता को क़रीब से महसूस किया हो। जिसने अनुभव की हो किसी नदी के किनारे टहलने की शांति, लहरों का गायन, संध्या के साथ डूबते सूरज की सुंदरता। उस पर भी जो कवि अपने इलाके के नदी, पर्वत, सड़क आदि के बारे में लिखें तो मान लेना चाहिए कि वह अपनी मिट्टी में ख़ूब रचे-बसे हैं। एक ऐसे ही कवि हैं केदारनाथ अग्रवाल।
केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1 अप्रैल 1911 को उत्तर-प्रदेश के बांदा जिले में हुआ था। उनके पिता हनुमान प्रसाद अग्रवाल भी कविताएं लिखा करते थे। अत: लेखन के शुरुआती गुर उन्हें अपने पिता से विरासत में मिले थे। वह ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े इसलिए स्वाभाविक तौर पर उन्हें प्रकृति का निकट अधिक मिला होगा। इस लगाव की छाप उनकी कविताओं में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। चाहें केन नदी का ज़िक्र हो या धूप का गीत। बुंदेलखंड के इस कवि ने बुंदेलखंड के आदमियों पर भी कविता कही है।
हट्टे-कट्टे हाड़ों वाले,
चौड़ी, चकली काठी वाले
थोड़ी खेती-बाड़ी रक्खे
केवल खाते-पीते जाते
गुड़गुड़ गुड़गुड़ हुक्का पकड़े,
ख़ूब धड़ाके धुआं उड़ाते,
फूहड़ बातों की चर्चा के
फौवारे फैलाते जाते
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जन्म व परवरिश
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