रामायण का राम प्रिये मैं, और तू मेरी सीता सी।
मधुसूदन की वाणी तू है, इतिहास रचे जो गीता सी।।
मैं जनकपुरी का स्वंयमवर सा, तू जनक लाडली सीता सी,,,,,,
मैं तेरा हूँ परिपूर्ण प्रिये, तू अर्धांगी परिणीता सी।।
मैं कृष्ण कन्हाई प्राण प्रिये, तू रुक्मणि सी मेरी वाम प्रिये,,,,
तू राधा सी दिल की धड़कन, जो रास रचाए मीता सी।
मैं तेरा हूँ "जय-शंकर" सा, तू सती साध्वी सी मेरी,,,
आराध्य मान के करे जो पूजा, प्राण को मेरे जीता सी।
मैं भी कुछ उस "जयशंकर" सा, ज्यों आँच तनिक तुझपे आए,,,
मैं आग लगा दूँ दुनियाँ पे, तांडव कर विष को पीता सी।
ये हम दोनों की डोर प्रिये, न इसका कोई तोड़ प्रिये,,,,,
ये है अमूल्य, ये है अटूट, जो टूटे न कोई फीता सी।।
जो चमक रहा है दूर गगन, सूरज सा हो के कहीं मगन,,,,
आकाश सरीखा प्रेम प्रिये, जिसे नाप सके न बीता सी।
गंगा की पावन भक्ति सी, मन को भावन अनुरक्ति सी,,,
अपनी गाथा भी राधे सी, अपनी भी प्रेम पुनीता सी।
-जयशंकर सिंह बाघेल
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
कमेंट
कमेंट X