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अंतःसलिल

                
                                                         
                            शीत संध्या की निस्तब्ध हथेलियों में
                                                                 
                            
मेरी श्वास
अदृश्य अक्षरों-सी
लिखी जाती है—
और मिट भी जाती है
धुंध के मौन में।

स्वप्न
अब देखे नहीं जाते,
वे बस
धीरे-धीरे
छूटते हैं—
जैसे स्मृति स्वयं
अपने बोझ से मुक्त होना चाहती हो।

समय
कोई निर्दय नहीं,
वह केवल
असंलग्न है—
वह वादों, ऋतुओं, चेहरों को
एक-एक कर
मौन में विसर्जित करता है।

और तुम—
न निकट, न दूर—
मेरी उँगलियों पर ठहरा
एक क्षण-भर का बोध,
जो स्पर्श नहीं,
स्वीकृति है।

तुम कहते नहीं,
फिर भी अर्थ उपजता है—
कि जो टूटना था
वह पहले ही
अपने अंत को पा चुका है,
अब शेष है
केवल क्षय की साधना।

इस वर्ष की अंतिम साँस में
मैं कुछ छोड़ता नहीं,
केवल
हल्का होता हूँ—
क्योंकि कथा का अंतिम पृष्ठ
कोई विराम नहीं,
एक और
अंतःप्रवाह है।
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एक घंटा पहले

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