घोर निशा, घनघोर तिमिर में, मेघों का था गहरा नाद,
भीग रही थी देह अविरल, टूटे थे सब संकल्प, विवाद।
एक अकेली खड़ी देहरी पर, भय से कम्पित उसका गात,
थामे हाथ प्रणय का साधक, दे रहा आशा की सौगात।
नयन पटल पर पीड़ा अंकित, वर्षों का था विषाद भरा,
किंतु हृदय के गहन गर्भ में, अब जागी थी स्नेह धरा।
बाहर था संसार कठोर जो, अग्नि-परीक्षा की लेता,
अंदर था वह छोटा कुटीर, जो प्रेम-शांति का रस देता।
प्रश्न अनेक थे मौन खड़े, क्या लौटूंगी मैं अपने धाम?
क्या यह पथ है अंतहीन या, यहाँ मिलेगी मुझको विराम?
पुरुष ने तब दीप उठाया, दीप्त हुआ वह पथ निर्वाण का,
बोला, "यह मशाल साक्षी है, हमारे अमर पहचान का।"
लौ यह मेरी भाँति प्रिये, आँधी से भी लड़ती अविराम,
टूटेगी न, थमेगी न यह, जब तक जीवन में है काम।
डर को आज द्वार पर तज दो, भीतर है केवल सुरक्षा,
दहलीज लाँघने का साहस, है नव जीवन की अभिरक्षा।
श्वास रोककर पग उसने धर, बंधन सारे दिए विसार,
मिट्टी की सौंधी खुशबू में, मिला उसे जीवन का सार।
बाहर बरखा बरस रही थी, भीतर था अत्यंत उजास,
दीवारों पर स्नेह अंकित था, विश्वास का होता आभास।
लालटेन की काँपती ज्वाला, बनी प्रेम का अटल विधान,
अंधकार से युद्ध निरंतर, करता रहा वह दीप महान।
वे दोनों तब मुक्त हुए थे, अतीत के हर एक त्रास से,
क्योंकि बदलाव उपजता है, छोटे से एक विश्वास से।
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
कमेंट
कमेंट X