ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी, मुझे तुझ से कोई शिकवा नहीं,
हम तो आईने की तरह, टुकड़ों में भी जी लेंगे।
पर जैसे-जैसे सच्चाई का वजूद बढ़ता रहा,
मेरे दिल के धीरे-धीरे टुकड़े होते रहे।
क़तरा-क़तरा ज़िंदगी थी, लम्हा-लम्हा कटती रही,
तारे गिनते-गिनते, रात तन्हा गुज़रती रही।
तारे भी बेवफ़ा निकले सारे,
हम गिनते रहे… और वो टूटते रहे।
सीना-ए-शब पे तमन्ना-ए-सहर का बोझ रहा,
ज़ंजीर-ए-सबा में शहपर-ए-तैर उलझे रहे।
शब-ए-ग़म में शोर-ए-शिकायत भी रहा, दावा-ए-वफ़ा भी;
बस डर यही रहा कि अपनी तलाश में, हम ख़ुद को खोते रहे।
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
कमेंट
कमेंट X