ज़िंदगी में वक़्त के कुछ हिस्से ऐसे भी होते हैं जब सिवाय अकेलेपन के कोई और आलिंगन को नहीं होता। परन्तु ये भी यूं ही नहीं मिलता; दुनिया के धोखे, अपनों का बिछोह, यारों की गद्दारी और दिल के टूटने के कितने ही जतन होते हैं तब इस आलिंगन का सामिप्य होता है।
क्या ही कमाल कि ज़िंदगी के असल रंग तो इन्हीं अंधेरों की घड़ी में दिखाई देते हैं, इसी आलिंगन में। तन्हाई के गले लगने पर ही तो महसूस होता है कि जीवन किन विषादों के क़रीब से होकर गुज़रा है। कितने लोग थे जिनके होने से आंखों की चमक ज़िंदा थी और वही लोग अब तमस में एक माचिस भी नहीं जला सकते। इसके सिवा और क्या हुआ राजू गाइड के साथ।
राजू गाइड था, उसे कई भाषाएं आती थी, वह लोगों को रास्ता दिखाता था और अपना शहर घुमाता था। जीवन की विडंबनाओं की ऐसी चोट पड़ी कि उसने रास्ता दिखाने वाले को उसके रास्ते से ही हटा दिया। वह जेल चला गया और जब छूटा तो उन गलियों को भूलना चाहता था जिनसे उसकी कर्म-रेखाएं बनी थीं।
यह कहानी है 1965 की फ़िल्म गाइड की जिसमें देवआनंद ने राजू गाइड की भूमिका निभाई है। फ़िल्म की शुरुआत एक तरह के दार्शनिक गीत के साथ होती है जिसमें संतापों की वेदना है तो दवा का छिड़काव भी है। इस गीत को शैलेन्द्र ने लिखा है और एस डी बर्मन ने संगीत भी दिया है और गाया भी है।
वहाँ कौन है तेरा
मुसाफिर जाएगा कहाँ
दम ले ले घड़ी भर
ये छइयाँ पाएगा कहाँ
वहाँ कौन है तेरा
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