ज्ञानपीठ से सम्मानित मराठी कवि और लेखक कुसुमाग्रज का मानना है कि सामाजिक सक्रियता की वजह से वह कविता कर पाते हैं। पुणे में पैदा हुए कुसुमाग्रज का मूल नाम विष्णु वामन शिरवाडकर है। कुसुमाग्रज कहते हैं कि बचपन से ही मुझे लोगों के हित में काम करना और आंदोलन में भाग लेना अच्छा लगता था। मुझे याद नहीं आता कि बचपन में मैंने लिखने के बारे में कभी गंभीरता से सोचा हो। बीस साल की उम्र में नासिक के कलारम मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए हुए सत्याग्रह में मैंने भाग लिया था। जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, तभी मेरी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं।
रोजगार के लिए मैंने फिल्मों की पटकथाएं लिखीं, अभिनय किया और पत्रकारिता भी की। अलबत्ता मेरे कविता संग्रह विशाखा के प्रकाशन के साथ ही, जिसे सामने लाने में विष्णु सखाराम खांडेकर का बड़ा योगदान था, मैं एक कवि के रूप में समादृत होने लगा था। मुझे इसका संतोष है कि एक कवि के रूप में सामाजिक बदलावों को अपनी रचनाओं में सामने लाने में मैं सफल हुआ। कविताओं के बाद जिस साहित्यिक विधा ने मुझे आकर्षित किया, वह है नाटक। नाटकों की खासियत यह है कि इनमें आप दोटूक वह कह सकते हैं, जो आप कहना चाहते हैं। इसकी किसी तरह की आड़ नहीं होती।
इसके अलावा मराठी साहित्य में नाटकों का वैसे भी बहुत महत्व रहा है। मैंने ऑस्कर वाइल्ड, मॉलेयर, शेक्सपीयर आदि के नाटकों के अनुवाद किए। बाद में खुद मेरी नाट्य रचना, नटसम्राट आई, जिसे मराठी भाषियों ने हाथोंहाथ लिया। मेरा यह मानना है कि साहित्य में अपने समय और समाज की पदचाप होनी चाहिए। सिर्फ खुद को अभिव्यक्त कर देना ही साहित्य नहीं है।
17 घंटे पहले
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