मुनीर का काव्य अकेलेपन की एक साहसिक झलक है। मुनीर की ही तरह मुनीर का 'अकेलापन' भी अलग ढंग का था। यह अकेलापन अद्वितीय होने की बजाय दूसरों के अकेलेपन को सम्मान और उन्हें अकेले रहने की स्वतंत्रता देने की इच्छा का फल था। अकेलेपन का यह अंदाज नया था तो मुनीर को अजबनी समझा गया। लेकिन बहुत जल्द यह खुल गया कि यह अजनबी स्ट्रेंजर नहीं बल्कि इक इक बार सभी संगबीती की जानी पहचानी स्थितियों का शायर है।
बरसों से इस मकान में आया नहीं कोई, अंदर है इसके कौन ये समझा नहीं कोई...
प्रसिद्ध शायर शीन काफ निजाम आगे लिखते हैं कि मुनीर हिज्र यानी वियोग और हिज्रत यानी प्रवास की ऐसी मिलन रेखा पर खड़े हैं जो रहस्यात्मक ढंग से कभी आदम की जन्नत से तो कभी मुनीर के होशियारपुर से पाकिस्तान की हिज्रत हो जाती है। सूफियों की शब्दावली में विसाल मौत का दूसरा नाम है और हिज्र जीवन या संसार वास का। मुनीर का तसव्वुफ मीर दर्द और असगर गौंडवी से बिलकुल अलग है। दूसरे शब्दों में यह परंपरागत सूफीवाद से भिन्न है। शायद यही सबब है कि उन्हें किसी भी तरह के वाद या नजरिये से नहीं नापा-परखा जा सकता है।
निजाम के अनुसार मुनीर की शायरी में बनावट और बुनावट नहीं, सीधे-सीधे अहसास को अल्फाज और जज्बे को जबान देने का अमल है। उनकी शायरी का ग्राफ बाहर से अंदर और अंदर से अंदर की तरफ है। एक ऐसी तलाश जो परेशान भी करती है और प्राप्त होने पर हैरान भी, जो हर सच्चे और अच्छे शायर का मुकद्दर है। इसलिए उनकी तलाश का हासिल यह है-
बरसों से इस मकान में आया नहीं कोई
अंदर है इसके कौन ये समझा नहीं कोई
गम जुदाई में यूं किया न करो...
मुनीर का अकेलापन उनकी नज्मों में साफ देखा जा सकता है। समय की धड़कनों के इस शायर की कुछ गजलें तो दर्शन का गहरा एहसास अपने में समेटे हुए है।
इतने खामोश भी रहा न करो
गम जुदाई में यूं किया न करो
ख्वाब होते हैं देखने के लिए
उनमें जा कर मगर रहा न करो
कुछ न होगा गिला भी करने से
जालिमों से गिला किया न करो
उन से निकलें हिकायतें शायद
हर्फ लिख कर मिटा दिया न करो
अपने रुत्बे का कुछ लिहाज मुनीर
यार सब को बना लिया न करो
इतने सवाल दिल में हैं और वो खमोश दर...
गम से लिपट ही जाएंगे ऐसे भी हम नहीं
दुनिया से कट ही जाएंगे ऐसे भी हम नहीं
दिन-रात बांटते हैं हमें मुख्तलिफ ख्याल
यूं इन में बंट ही जाएंगे ऐसे भी हम नहीं
इतने सवाल दिल में हैं और वो खमोश दर
उस दर से हट ही जाएंगे ऐसे भी हम नहीं
है सख्ती-ए-सफर से बहुत तंग पर मुनीर
घर को पलट कर जाएंगे ऐसे भी हम नहीं
खौफ आता है अपने ही घर से...
आ गयी याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चिराग जलते ही
खुल गए शहरे-गम के दरवाजे
इक जरा सी हवा के चलते ही
कौन था तू कि फिर न देखा तुझे
मिट गया ख्वाब आंख मलते ही
खौफ आता है अपने ही घर से
माह शबताब के निकलते ही
तू भी जैसे बदल सा जाता है
अक्से दीवार के बदलते ही
खून सा लग गया है हाथों में
चढ़ गया जहर गुल मसलते ही
साभार-दास्तां कहते कहते...
देर कर देता हूं मैं
मुनीर नियाजी
वाणी प्रकाशन
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बरसों से इस मकान में आया नहीं कोई, अंदर है इसके कौन ये समझा नहीं कोई...
16 घंटे पहले
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