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विनोद कुमार शुक्ल का जाना, आधुनिकता से लैस संवेदना के एक बड़े लेखक का अवसान है

साहित्य
                
                                                         
                            हिंदी के प्रख्यात कवि कथाकार विनोद कुमार शुक्ल कल इहलोक से विदा हो गए । पिछले साल जब  उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो हिंदी के तथाकथित नाक सिकोडू समाज को मिर्ची लग गई। उन्हें बधाई देने के सिलसिले के साथ ही उनके लिखे की विवेचना शुरू हो गई। दबे स्वर सिर उठाने लगे कि विनोद कुमार शुक्ल ने ऐसा क्या लिखा है कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़े जाने का निर्णय लिया गया है। जरूर यह सत्तानुकूलित लेखन का पुरस्कार है।  मार्क्सवादी शिविरों ने इस पुरस्कार पर भरसक चुप्पी  साधी तो कुछ आलोचकों ने उन पर नव्य रूपवादी शिल्प के लेखन का आरोप लगाया। यह भी कहा गया कि यह पुरस्कार उन्हें नक्सली संहार पर चुप रहने के लिए ही दिया गया है। एक एक्टिविस्ट लेखक ने तो यहां तक लिखा कि '' शुक्ल जी जहां रहते हैं, वहां से महज सौ किमी दूर बस्तर के जंगलों में जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए आदिवासियों /माओवादियों का शानदार प्रतिरोध और सरकार का उन पर क्रूर दमन चल रहा है। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल के समूचे साहित्य में यह झंझावात गायब है।''  इससे पहले रामभद्राचार्य और गुलज़ार को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे जाने के कारण भी कुछ लोगों को लगा कि इससे ज्ञानपीठ पुरस्कार की जो गरिमा कलंकित हुई थी, शुक्ल जी को पुरस्कृत करने से कुछ धुल पुछ गई तो कइयों ने भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार को भी पूंजीवादी सत्तावादी गठजोड़ से संचालित प्रतिष्ठान का पुरस्कार  बताया। 
                                                                 
                            

अब जब हमारी भाषा का यह बड़ा लेखक नहीं रहा, पीछे चले ज्ञानपीठ विवाद की कड़वी छायाएं याद हो आई हैं। जब कि पुरस्कार की घोषणा पर एक व्यक्तिगत इंटरव्यू में विनोद कुमार शुक्ल ने भी विनम्रतावश इस पर खुशी जताते हुए यही कहा अभी बहुत कुछ मुझे लिखना है जो अभी तक नहीं लिख पाया । लेकिन सच कहा जाए तो विनोद कुमार शुक्ल ने जितना लिखा है वह कम नहीं है। कथा और कविता दोनों दुनियाओं के वे बड़े लेखक हैं। उनका लिखना स्फीति में बह कर लिखना नहीं है, परचम उठाने वाली नकली क्रांतिकारिता की चासनी में डूब कर लिखना नहीं है, उनका लिखना एक तरह से अपने समय की आधुनिकतम भाषा और शिल्प में एक विशेष हस्तक्षेप है। एक वक्त जब कहानी की दुनिया में परिंदे का आगमन हुआ था तो नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादी आलोचक ने उसे उस दौर की नई कहानी के केंद्र में रखा और उसे अपने समय की आधुनिक कहानियों के दौर की श्रेष्ठ कहानी के रूप में स्थापित किया । यद्यपि बाद के दिनों में निर्मल वर्मा की भारतीयता की अवधारणा और विचारधारा को लेकर आलोचनाएं होती रहीं। पुरस्कारों की बात छिड़ी है तो ऐसे भी साहित्यकार हमारे बीच हैं जैसे रामदरश मिश्र जिन्हें  जन सरोकारों से भरे इतने विपुल लेखन के बावजूद 92 साल की अवस्था में साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया। कितने योग्य साहित्यकार पुरस्कारों से वंचित रहे हैं। किन्तु विनोद कुमार शुक्ल के पुरस्कृत होने पर यही समाज जो उनके लिखे की कद्र करता था, इस बात से नाराज हुआ फिरता रहा है कि उन्होंने अपने राज्य के सलवाजुडूम और नक्सल समस्या पर मुखर रूप से क्यों नहीं लिखा। यही नहीं। यह भी यह पुरस्कार समस्या और यथार्थ से आंख मूंद कर लिखने वाले लेखक को दिया गया पुरस्कार है। 

विनोद कुमार शुक्ल जाने माने कवि और कथाकार हैं। कौन नही जानता कि उनके लिखे उपन्यास नौकर की कमीज पर मणि कौल ने फिल्म बनाई है। 'खिलेगा तो देखेंगे' और 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' भी अपनी तरह के अनूठे उपन्यास है। कविताओं में भी उनकी अलग धाक है। वे कलावादी खेमे के रचनाकार भले ही माने जाते रहे हों किन्तु  कलावादी वृत्त के कवियों की तुलना में उनके यहां शिल्प, अंदाजेबयां और कथ्य का बेहतर समामेलन है। लगभग जयहिंद, वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह, सब कुछ होना बचा रहेगा, अतिरिक्त नहीं, आकाश धरती को खटखटाता है,  कभी के बाद अभी, एक पूर्व में बहुत से पूर्व और अभी हाल में उनकी हस्तलिपि के साथ आया कविता संग्रह केवल जड़ें हैं ---इस बात के प्रमाण हैं कि कवियों के मध्य उनका कद कोई सामान्य नहीं है। उन्हें अनेक पुरस्कारों के साथ साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिल चुका है तथा दयावदी मोदी कवि शेखर सम्मान व 2023 में प्रतिष्ठित पेन/नाबाकोव पुरस्कार भी। वे कविता की धुरी पर अपने अंदाज ए बयां के साथ खेलते हैं किन्तु खेलते हुए वे अपने आसपास के कथ्य को विस्मृत कर देते हों, ऐसा नहीं है। कभी के बाद अभी में ही सुदूर पूर्व में सताये और खदेड़े जाते विस्थापित बिहारियों को लेकर मार्मिक कविताएं लिखी हैं। वही कह सकते हैं अपनी एक कविता में कि ''कविता सुनती है सताई हुई कौमों की कराह । '' 

ृकहना अतिशय नहीं कि हिन्दी कविता में एक ऐसा शख्स भी है जो अपनी तरह से लिखता है। जिसका हिन्दी साहित्य के अनुशासन से भले ही कोई सीधा ताल्लुक न हो पर जिसके काव्यानुशासन पर उँगली नहीं उठाई जा सकती। कविता और गल्प दोनों से सघन रिश्ता रखने वाले विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ एकबारगी देखने पर कलावादी प्रत्ययों से संसाधित जान पड़ती हैं किन्तु उनमें गहरे प्रवेश करने पर पता चलता है कि वे अमूर्तन को स्थानीयताओं से मूर्त एवं प्रयोजनीय बना देते हैं। इधर वे आदिवासियों को लेकर जिस काव्यात्मक दृढ़ता से पेश आए हैं, वह उन्हें अपनी जमीन से जोड़ता है। अचरज नहीं कि अपरिग्रह का अभ्यासी यह कवि शब्द शक्तियों की टोह में लगातार लगा रहने वाला है जैसे कोई खगोलविद नक्षत्रों की रहस्य-लीला को समझने में।

शुक्ल जी ने सदैव अपना अलग रास्ता अख्तियार किया है

कथा संसार की ही तरह कविता में भी विनोद कुमार शुक्ल ने सदैव अपना अलग रास्ता अख्तियार किया है। 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह' से अब तक विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविता को चालू कविता की आबोहवा से बचा कर रखा है। उनके कविता संग्रहों 'सब कुछ होना बचा रहेगा' और 'अतिरिक्त नहीं' के साथ उनके ताजा संग्रह कभी के बाद अभी में भी उनका यही तेवर बरकरार है। वे सीधे-सादे वाक्यों से कविता की शुरुआत अवश्य करते हैं किन्तु आगे चलकर वह एक ऐसे तार्किक और चिंतनशील विन्यास में खो जाती है कि हम 'ज्यों चतुरन की बात में बात-बात में बात' जैसी मुग्धमयता के मुरीद हो उठते हैं। किन्तु अनभ्यस्त पाठक के लिए उनकी कविताएँ कोई इतनी 'मेड इजी' भी नहीं हैं। उनकी कविताओं का आनंद वही ले सकता है, वाक्य की इकाइयों से बनने वाली अर्थ सरचना पर जिसकी बखूबी पकड़ हो। जो अव्ययों, विशेषणों, क्रियाओं और योजक । पदों तक से कविता की प्रतीति संभव कर सकता हो। विनोद जी कविता की सृष्टि को खेल की तरह लेते हैं और वाक्यों की व्याकरणिक संघटना से अपने अनुभवों को एक नई काव्यभाषा के पैरहन में बदल देते हैं। उनकी कविता अपने अचूक और सावधान चिंतन का परिणाम लगती है। वे अपने अवलोकन से किसी भी क्रिया को स्वाभाविक रूप से घटता हुआ नहीं देखते, उस घटना के पीछे घटती हुई अन्य चीज़ों को बार-बार घटने के लिए एक उत्प्रेरक तत्त्व की तरह उकसाते हुए भी पेश आते हैं। उनकी कविता की बानगी उन्हीं के शब्दों में : 'एक अच्छी घटना / तुम घटने पर रहना / बल्कि घट जाना बार-बार घट जाना / प्रत्येक मनुष्य का जीवन / हर क्षण अच्छा मुहूर्त है / सुख की घटना के लिए।'

आरंभ से ही विनोद कुमार शुक्ल का यही मिजाज रहा है कि अक्सर वे चालू भाषा और जानी-पहचानी काव्य युक्तियों से काम नहीं लेते। इसीलिए उनके जैसा कवि परिदृश्य में और नहीं है जो ऐसे प्रयोगों का जोखिम उठाए। किसी भी लोकप्रियता और उद्धरणीयता के मोह में पड़े बिना वे एक तरफ अपनी कविता को भाषा, तर्क और नई उपपत्तियों से जोड़ते हैं तो दूसरी तरफ वे कविता की प्रयोजनीयता की ओर से भी मुँह फेरे नहीं रहते। आख़िर वे ही हैं जिन्होंने लिखा है, 'जो सबकी घड़ी में बज रहा है, वह सबके हिस्से का समय नहीं है।' 'झुकने से जैसे जेब से सिक्का गिर जाता है। हृदय से मनुष्यता गिर जाती है।' वे पृथ्वी के संसाधनों पर पहला हक़ उनका समझते हैं जो इसके मूल निवासी हैं। तभी वे कहते हैं : जो प्रकृति के सबसे निकट हैं/जंगल उनका है। पर विनोद कुमार शुक्ल की कविता वैसे नहीं पहचानी जा सकती जैसे उनके अन्य समकालीनों की। वह एक सपाट पाठ की तरह पठनीय या व्याख्येय नहीं है, बल्कि अपने स्थापत्य में अनूठी और विरल है। वे लिखते हैं : मैं उनसे नहीं कहता जो निर्णय लेते हैं। क्योंकि वे निर्णय ले चुके होते हैं। 'मृत्यु के बाद' की पंक्तियाँ हैं : 'मृत्यु कभी हो । परन्तु अंतिम साँस लेने के लिए / मेरे पास हमेशा समय रहेगा।' या ' बाहर झरे चंपा के फूल को मैं उठा लेता हूँ और एक 'अंतिम नहीं साँस' लेता हूँ।' उनकी कविता संरचना में यह 'नहीं साँस' जैसा अटपटापन पूफ शोधकों को कितनी बाधा पहुँचाता होगा जो कवि की ही तरह चौकस और सावधान न हों। पर यही तो उनकी विशेषता है जो उनके काव्य और कथासंसार में गद्य को अपनी तरह से बरतने से संभव हुई है।

आखिर इतने अटपटेपन से वे कविता में क्या कहना चाहते हैं? कविता के बारे में एक कविता में वे कहते हैं: 'कविता जानबूझ कर लिखता हूँ / जानबूझ कर कौन-सी कविता/ यह अंत तक पता नहीं होता। यानी शुरू से / परन्तु एक स्थिति में कविता / स्वयं होने के लिए आपसे सहयोग करने लगती है । यानी अंत तक / यद्यपि कविता का अंत नहीं होता।' याद रहे कि मुक्तिबोध ने भी कहा था 'खत्म नहीं होती कविता'। परन्तु शुक्ल का अंदाजेबयाँ अलग है। मुक्तिबोध के गहरे सान्निध्य में रहते हुए भी उनकी कविता उनसे कितनी अप्रभावित रही है, यह देखने की बात है जबकि मलय को मुक्तिबोध के प्रभावों में अवलोकित-आकलित करने का चलन हो चला है। 

मुक्तिबोध, मलय और शुक्ल तीनों की कविताएँ दुर्बोध हैं। पर विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ यह दुर्बोधता कुछ अलग किस्म की है। यह जानबूझ कर पैदा की गयी दुर्बोधता है-जीवन के आसान से दिखने वाले पहलुओं में कुछ अलक्षित अर्थ उपजा लेने की सयत्न कोशिश इसीलिए वे न तो मुक्तिबोध से कम चिंतनशील कवि हैं न उनसे कम दुर्बोध। वे अपनी सरलता को व्यजित करने की कोशिश करते भी नहीं दीखते। जैसे वे चाहते हों कि यदि कविता के शहदीले पाठ तक पहुँचना है तो इस दुर्बोधता के काँटे के बीच से गुजरना लाजिमी है।

उनकी कविता किसी मूल्य या संदेश का संधान नहीं है। वह वाक् में, शब्द में, अर्थ में, रस में, ध्वनि में, रीति में, वक्रोक्ति में, उक्तिवैचित्र्य में यहाँ तक कि किसी असंभवता में भी कुछ खोजने बीनने और रचने से उद्वेलित है। वह जीवन को अच्छी उम्मीदों के साथ जीने का जतन सिखाती है। 'जीवन को मैंने पाया इसे भूला नहीं' - वे कहते हैं। 'अच्छे से एक दिन रहूँ तब तक अमर रहूँ' में एक भी दिन को अच्छी तरह से जीना उम्मीद और आश्वस्ति के साथ जीना है। उनकी इन कविताओं में दगे, कर्फ्यू, आदिवासी, जंगल, विस्थापनानुभूति, पड़ोस, पड़ोसी और पड़ोस भाव पर तो कविताएँ हैं ही, अलगाववादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध यह ख्वाहिश भी है 'सिर उठा कर मैं बहु जातीय नहीं, सब जातीय / बहु संख्यक नहीं! सब संख्यक होकर / एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूँ। एक मुश्त' (लोगों और जगहों में, पृ. 15) वे दंगे की दहशत में भी मरने के लिए इस इसरार के साथ उद्यत दिखते हैं ताकि किसी मुसलमान के हाथों मरें तो उन्हें हिन्दू न समझा जाए और किसी हिन्दू के हाथों मरें तो उन्हें मुसलमान न समझा जाए। वे अगली कविता में यह भी कहते हैं कि 'हत्यारा अगर हिन्दू हुआ तो अपनी जान हिन्दू कह कर न बचाऊँ । मुसलमान कहूँ अगर मुसलमान हुआ तो अपनी जान मुसलमान कह कर न बचाऊँ। हिन्दू कहूँ।' (अगर रोज़ कर्फ्यू के दिन हो)
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शुक्ल जी ने सदैव अपना अलग रास्ता अख्तियार किया है

एक दिन पहले

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