हिंदी के प्रख्यात कवि कथाकार विनोद कुमार शुक्ल कल इहलोक से विदा हो गए । पिछले साल जब उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो हिंदी के तथाकथित नाक सिकोडू समाज को मिर्ची लग गई। उन्हें बधाई देने के सिलसिले के साथ ही उनके लिखे की विवेचना शुरू हो गई। दबे स्वर सिर उठाने लगे कि विनोद कुमार शुक्ल ने ऐसा क्या लिखा है कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़े जाने का निर्णय लिया गया है। जरूर यह सत्तानुकूलित लेखन का पुरस्कार है। मार्क्सवादी शिविरों ने इस पुरस्कार पर भरसक चुप्पी साधी तो कुछ आलोचकों ने उन पर नव्य रूपवादी शिल्प के लेखन का आरोप लगाया। यह भी कहा गया कि यह पुरस्कार उन्हें नक्सली संहार पर चुप रहने के लिए ही दिया गया है। एक एक्टिविस्ट लेखक ने तो यहां तक लिखा कि '' शुक्ल जी जहां रहते हैं, वहां से महज सौ किमी दूर बस्तर के जंगलों में जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए आदिवासियों /माओवादियों का शानदार प्रतिरोध और सरकार का उन पर क्रूर दमन चल रहा है। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल के समूचे साहित्य में यह झंझावात गायब है।'' इससे पहले रामभद्राचार्य और गुलज़ार को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे जाने के कारण भी कुछ लोगों को लगा कि इससे ज्ञानपीठ पुरस्कार की जो गरिमा कलंकित हुई थी, शुक्ल जी को पुरस्कृत करने से कुछ धुल पुछ गई तो कइयों ने भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार को भी पूंजीवादी सत्तावादी गठजोड़ से संचालित प्रतिष्ठान का पुरस्कार बताया।
अब जब हमारी भाषा का यह बड़ा लेखक नहीं रहा, पीछे चले ज्ञानपीठ विवाद की कड़वी छायाएं याद हो आई हैं। जब कि पुरस्कार की घोषणा पर एक व्यक्तिगत इंटरव्यू में विनोद कुमार शुक्ल ने भी विनम्रतावश इस पर खुशी जताते हुए यही कहा अभी बहुत कुछ मुझे लिखना है जो अभी तक नहीं लिख पाया । लेकिन सच कहा जाए तो विनोद कुमार शुक्ल ने जितना लिखा है वह कम नहीं है। कथा और कविता दोनों दुनियाओं के वे बड़े लेखक हैं। उनका लिखना स्फीति में बह कर लिखना नहीं है, परचम उठाने वाली नकली क्रांतिकारिता की चासनी में डूब कर लिखना नहीं है, उनका लिखना एक तरह से अपने समय की आधुनिकतम भाषा और शिल्प में एक विशेष हस्तक्षेप है। एक वक्त जब कहानी की दुनिया में परिंदे का आगमन हुआ था तो नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादी आलोचक ने उसे उस दौर की नई कहानी के केंद्र में रखा और उसे अपने समय की आधुनिक कहानियों के दौर की श्रेष्ठ कहानी के रूप में स्थापित किया । यद्यपि बाद के दिनों में निर्मल वर्मा की भारतीयता की अवधारणा और विचारधारा को लेकर आलोचनाएं होती रहीं। पुरस्कारों की बात छिड़ी है तो ऐसे भी साहित्यकार हमारे बीच हैं जैसे रामदरश मिश्र जिन्हें जन सरोकारों से भरे इतने विपुल लेखन के बावजूद 92 साल की अवस्था में साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया। कितने योग्य साहित्यकार पुरस्कारों से वंचित रहे हैं। किन्तु विनोद कुमार शुक्ल के पुरस्कृत होने पर यही समाज जो उनके लिखे की कद्र करता था, इस बात से नाराज हुआ फिरता रहा है कि उन्होंने अपने राज्य के सलवाजुडूम और नक्सल समस्या पर मुखर रूप से क्यों नहीं लिखा। यही नहीं। यह भी यह पुरस्कार समस्या और यथार्थ से आंख मूंद कर लिखने वाले लेखक को दिया गया पुरस्कार है।
विनोद कुमार शुक्ल जाने माने कवि और कथाकार हैं। कौन नही जानता कि उनके लिखे उपन्यास नौकर की कमीज पर मणि कौल ने फिल्म बनाई है। 'खिलेगा तो देखेंगे' और 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' भी अपनी तरह के अनूठे उपन्यास है। कविताओं में भी उनकी अलग धाक है। वे कलावादी खेमे के रचनाकार भले ही माने जाते रहे हों किन्तु कलावादी वृत्त के कवियों की तुलना में उनके यहां शिल्प, अंदाजेबयां और कथ्य का बेहतर समामेलन है। लगभग जयहिंद, वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह, सब कुछ होना बचा रहेगा, अतिरिक्त नहीं, आकाश धरती को खटखटाता है, कभी के बाद अभी, एक पूर्व में बहुत से पूर्व और अभी हाल में उनकी हस्तलिपि के साथ आया कविता संग्रह केवल जड़ें हैं ---इस बात के प्रमाण हैं कि कवियों के मध्य उनका कद कोई सामान्य नहीं है। उन्हें अनेक पुरस्कारों के साथ साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिल चुका है तथा दयावदी मोदी कवि शेखर सम्मान व 2023 में प्रतिष्ठित पेन/नाबाकोव पुरस्कार भी। वे कविता की धुरी पर अपने अंदाज ए बयां के साथ खेलते हैं किन्तु खेलते हुए वे अपने आसपास के कथ्य को विस्मृत कर देते हों, ऐसा नहीं है। कभी के बाद अभी में ही सुदूर पूर्व में सताये और खदेड़े जाते विस्थापित बिहारियों को लेकर मार्मिक कविताएं लिखी हैं। वही कह सकते हैं अपनी एक कविता में कि ''कविता सुनती है सताई हुई कौमों की कराह । ''
ृकहना अतिशय नहीं कि हिन्दी कविता में एक ऐसा शख्स भी है जो अपनी तरह से लिखता है। जिसका हिन्दी साहित्य के अनुशासन से भले ही कोई सीधा ताल्लुक न हो पर जिसके काव्यानुशासन पर उँगली नहीं उठाई जा सकती। कविता और गल्प दोनों से सघन रिश्ता रखने वाले विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ एकबारगी देखने पर कलावादी प्रत्ययों से संसाधित जान पड़ती हैं किन्तु उनमें गहरे प्रवेश करने पर पता चलता है कि वे अमूर्तन को स्थानीयताओं से मूर्त एवं प्रयोजनीय बना देते हैं। इधर वे आदिवासियों को लेकर जिस काव्यात्मक दृढ़ता से पेश आए हैं, वह उन्हें अपनी जमीन से जोड़ता है। अचरज नहीं कि अपरिग्रह का अभ्यासी यह कवि शब्द शक्तियों की टोह में लगातार लगा रहने वाला है जैसे कोई खगोलविद नक्षत्रों की रहस्य-लीला को समझने में।
शुक्ल जी ने सदैव अपना अलग रास्ता अख्तियार किया है
कथा संसार की ही तरह कविता में भी विनोद कुमार शुक्ल ने सदैव अपना अलग रास्ता अख्तियार किया है। 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह' से अब तक विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविता को चालू कविता की आबोहवा से बचा कर रखा है। उनके कविता संग्रहों 'सब कुछ होना बचा रहेगा' और 'अतिरिक्त नहीं' के साथ उनके ताजा संग्रह कभी के बाद अभी में भी उनका यही तेवर बरकरार है। वे सीधे-सादे वाक्यों से कविता की शुरुआत अवश्य करते हैं किन्तु आगे चलकर वह एक ऐसे तार्किक और चिंतनशील विन्यास में खो जाती है कि हम 'ज्यों चतुरन की बात में बात-बात में बात' जैसी मुग्धमयता के मुरीद हो उठते हैं। किन्तु अनभ्यस्त पाठक के लिए उनकी कविताएँ कोई इतनी 'मेड इजी' भी नहीं हैं। उनकी कविताओं का आनंद वही ले सकता है, वाक्य की इकाइयों से बनने वाली अर्थ सरचना पर जिसकी बखूबी पकड़ हो। जो अव्ययों, विशेषणों, क्रियाओं और योजक । पदों तक से कविता की प्रतीति संभव कर सकता हो। विनोद जी कविता की सृष्टि को खेल की तरह लेते हैं और वाक्यों की व्याकरणिक संघटना से अपने अनुभवों को एक नई काव्यभाषा के पैरहन में बदल देते हैं। उनकी कविता अपने अचूक और सावधान चिंतन का परिणाम लगती है। वे अपने अवलोकन से किसी भी क्रिया को स्वाभाविक रूप से घटता हुआ नहीं देखते, उस घटना के पीछे घटती हुई अन्य चीज़ों को बार-बार घटने के लिए एक उत्प्रेरक तत्त्व की तरह उकसाते हुए भी पेश आते हैं। उनकी कविता की बानगी उन्हीं के शब्दों में : 'एक अच्छी घटना / तुम घटने पर रहना / बल्कि घट जाना बार-बार घट जाना / प्रत्येक मनुष्य का जीवन / हर क्षण अच्छा मुहूर्त है / सुख की घटना के लिए।'
आरंभ से ही विनोद कुमार शुक्ल का यही मिजाज रहा है कि अक्सर वे चालू भाषा और जानी-पहचानी काव्य युक्तियों से काम नहीं लेते। इसीलिए उनके जैसा कवि परिदृश्य में और नहीं है जो ऐसे प्रयोगों का जोखिम उठाए। किसी भी लोकप्रियता और उद्धरणीयता के मोह में पड़े बिना वे एक तरफ अपनी कविता को भाषा, तर्क और नई उपपत्तियों से जोड़ते हैं तो दूसरी तरफ वे कविता की प्रयोजनीयता की ओर से भी मुँह फेरे नहीं रहते। आख़िर वे ही हैं जिन्होंने लिखा है, 'जो सबकी घड़ी में बज रहा है, वह सबके हिस्से का समय नहीं है।' 'झुकने से जैसे जेब से सिक्का गिर जाता है। हृदय से मनुष्यता गिर जाती है।' वे पृथ्वी के संसाधनों पर पहला हक़ उनका समझते हैं जो इसके मूल निवासी हैं। तभी वे कहते हैं : जो प्रकृति के सबसे निकट हैं/जंगल उनका है। पर विनोद कुमार शुक्ल की कविता वैसे नहीं पहचानी जा सकती जैसे उनके अन्य समकालीनों की। वह एक सपाट पाठ की तरह पठनीय या व्याख्येय नहीं है, बल्कि अपने स्थापत्य में अनूठी और विरल है। वे लिखते हैं : मैं उनसे नहीं कहता जो निर्णय लेते हैं। क्योंकि वे निर्णय ले चुके होते हैं। 'मृत्यु के बाद' की पंक्तियाँ हैं : 'मृत्यु कभी हो । परन्तु अंतिम साँस लेने के लिए / मेरे पास हमेशा समय रहेगा।' या ' बाहर झरे चंपा के फूल को मैं उठा लेता हूँ और एक 'अंतिम नहीं साँस' लेता हूँ।' उनकी कविता संरचना में यह 'नहीं साँस' जैसा अटपटापन पूफ शोधकों को कितनी बाधा पहुँचाता होगा जो कवि की ही तरह चौकस और सावधान न हों। पर यही तो उनकी विशेषता है जो उनके काव्य और कथासंसार में गद्य को अपनी तरह से बरतने से संभव हुई है।
आखिर इतने अटपटेपन से वे कविता में क्या कहना चाहते हैं? कविता के बारे में एक कविता में वे कहते हैं: 'कविता जानबूझ कर लिखता हूँ / जानबूझ कर कौन-सी कविता/ यह अंत तक पता नहीं होता। यानी शुरू से / परन्तु एक स्थिति में कविता / स्वयं होने के लिए आपसे सहयोग करने लगती है । यानी अंत तक / यद्यपि कविता का अंत नहीं होता।' याद रहे कि मुक्तिबोध ने भी कहा था 'खत्म नहीं होती कविता'। परन्तु शुक्ल का अंदाजेबयाँ अलग है। मुक्तिबोध के गहरे सान्निध्य में रहते हुए भी उनकी कविता उनसे कितनी अप्रभावित रही है, यह देखने की बात है जबकि मलय को मुक्तिबोध के प्रभावों में अवलोकित-आकलित करने का चलन हो चला है।
मुक्तिबोध, मलय और शुक्ल तीनों की कविताएँ दुर्बोध हैं। पर विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ यह दुर्बोधता कुछ अलग किस्म की है। यह जानबूझ कर पैदा की गयी दुर्बोधता है-जीवन के आसान से दिखने वाले पहलुओं में कुछ अलक्षित अर्थ उपजा लेने की सयत्न कोशिश इसीलिए वे न तो मुक्तिबोध से कम चिंतनशील कवि हैं न उनसे कम दुर्बोध। वे अपनी सरलता को व्यजित करने की कोशिश करते भी नहीं दीखते। जैसे वे चाहते हों कि यदि कविता के शहदीले पाठ तक पहुँचना है तो इस दुर्बोधता के काँटे के बीच से गुजरना लाजिमी है।
उनकी कविता किसी मूल्य या संदेश का संधान नहीं है। वह वाक् में, शब्द में, अर्थ में, रस में, ध्वनि में, रीति में, वक्रोक्ति में, उक्तिवैचित्र्य में यहाँ तक कि किसी असंभवता में भी कुछ खोजने बीनने और रचने से उद्वेलित है। वह जीवन को अच्छी उम्मीदों के साथ जीने का जतन सिखाती है। 'जीवन को मैंने पाया इसे भूला नहीं' - वे कहते हैं। 'अच्छे से एक दिन रहूँ तब तक अमर रहूँ' में एक भी दिन को अच्छी तरह से जीना उम्मीद और आश्वस्ति के साथ जीना है। उनकी इन कविताओं में दगे, कर्फ्यू, आदिवासी, जंगल, विस्थापनानुभूति, पड़ोस, पड़ोसी और पड़ोस भाव पर तो कविताएँ हैं ही, अलगाववादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध यह ख्वाहिश भी है 'सिर उठा कर मैं बहु जातीय नहीं, सब जातीय / बहु संख्यक नहीं! सब संख्यक होकर / एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूँ। एक मुश्त' (लोगों और जगहों में, पृ. 15) वे दंगे की दहशत में भी मरने के लिए इस इसरार के साथ उद्यत दिखते हैं ताकि किसी मुसलमान के हाथों मरें तो उन्हें हिन्दू न समझा जाए और किसी हिन्दू के हाथों मरें तो उन्हें मुसलमान न समझा जाए। वे अगली कविता में यह भी कहते हैं कि 'हत्यारा अगर हिन्दू हुआ तो अपनी जान हिन्दू कह कर न बचाऊँ । मुसलमान कहूँ अगर मुसलमान हुआ तो अपनी जान मुसलमान कह कर न बचाऊँ। हिन्दू कहूँ।' (अगर रोज़ कर्फ्यू के दिन हो)
स्थानिकता का वैश्विकता से क्या रिश्ता है
स्थानिकता का वैश्विकता से क्या रिश्ता है, यह विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को पढ़ कर जाना जा सकता है। दुनिया भर के आदिवासी इन दिनों विस्थापन के संकट से गुजर रहे हैं। इन कविताओं में भरपूर स्थानिकता है। इतनी कि उन्हें हिन्दी के उस अंचल का कवि कहा जा सके जहाँ बस्तर और दंतेवाड़ा जैसे दुर्गम आदिवासियों के इलाके हैं। जहाँ अभी-अभी सलवा जुडूम का दमनचक्र चल रहा है। राजिम, रायपुर, छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस, बिलासपुर, हबीब तनवीर, रजा और राजनंदगाँव के प्रसंगों के बहाने कवि अपनी स्थानिकता को तो चरितार्थ करता ही है, वह अपनी कविता को लोगों के सुख-दुख और लोकाचार के निकट भी ले जाता है। वह यथार्थ के बहुस्तरीय पहलुओं का अनावरण करने की इच्छा रखता हुआ उस वैश्विक यथार्थ के निकट जाना चाहता है जो ऐसे ही खड-खंड यथार्थों से बना है। 'गंगातट' में यही स्थानिकता है जिसमें रमे हुए ज्ञानेन्द्रपति को वैश्विक संकटों की आहट सुनाई देती है। पर यहाँ जरा बारीकी ज्यादा है, महीन बीनाई है। ऐसी ही आहट शुक्ल को छत्तीसगढ़ की ज्वलंत सामयिकता से सुनाई देती है। आज छत्तीसगढ़ का दहकता हुआ यथार्थ आदिवासियों के विस्थापन और उन पर होने वाले उत्पीड़नों का यथार्थ है। प्राकृतिक संसाधनों को खैखोरती सर्वग्रासी पूँजीवादी व्यवस्था का यथार्थ है। कविता कला की समस्त चुनौतियों को अपने मूड़े माथे उठाए हुए वे जहाँ भाषा की शक्ति और सामर्थ्य का पूरा उपयोग करते हैं वहीं अपने इस दायित्व से मुँह नहीं मोड़ते कि किसी भी कला की प्रयोजनीयता अंततः उसकी सामाजिक उपयोगिता में है। इस दृष्टि से विनोदकुमार शुक्ल इस बात के पूरे समर्थक हैं कि आदिवासियों की बेदखली दरअसल आकाश से चाँदनी की बेदखली है। वे इस बात से मुतमइन है कि आदिवासियों की तथाकथित हिंसक कार्रवाई दरअसल अपनी जान बचाने की कार्रवाई है। यह अपने को बचाने के लिए खुद को मार डालने की कार्रवाई है। कवि के शब्दों में यही आदिवासी सच है।
आदिवासियों को हिंसक बताने की मानसिकता पर एक बातचीत में उन्होंने माना है कि आदिवासियों के पास जो तीर धनुष जैसा हथियार है, ये उनकी अपनी रक्षा के लिए और शिकार से पेट भरने का उनका अपना साधन हैं। इसको उतना और वैसा ही प्राकृतिक मानना चाहिए जैसे किसी हिरण के सींग होते हैं, जिनसे वह अपना बचाव करता है। लेकिन अगर हिरण एक झुंड में खड़ा हुआ है और हिरण के सींग का नुकीलापन आकाश की तरफ मुखातिब है, ऐसे में उससे अपने बचाव के लिए हवाई हमले की बात करना कैसी सोच है? इसी तरह उनकी नज़र में विकास की अवधारणा बाजार की आवश्यकता के अनुरूप बनाई जाती है। उनकी दृष्टि में प्रदूषण के उद्भावक ग़रीब लोग नहीं, बल्कि कल-कारखाने चलाने वाले अमीर लोग हैं। क्योंकि गरीब तो कचरा बीनने वाला है, पैदा करने वाला नहीं। यह पश्चिमी सभ्यता-रहन-सहन, उपभोक्तावाद और तकनीक का कचरा है जो अमीर देशों की देन है। कविताओं में उनकी यही दृष्टि गुँथी हुई दिखती है।
विनोद कुमार शुक्ल की कविता इतने कलात्मक लटके झटकों से बनी है कि वह किसी भी आसान-सी श्रेणी या साँचे में फिट नहीं बैठती। हाँ, शमशेर के से वाक्संयम से बनी बुनी उनकी कविता जीवन के तमाम नए चित्र हमारे समक्ष रखती है जो कविता में पहली बार देखने को मिलते हैं। इसलिए सामान्यतः उन्हें कलावादी कहना उस कलात्मकता का तिरस्कार है जो कविता- कला की पहली और बुनियादी शर्त है और जिसे वे एक ज़िद की तरह सम्हाले हुए हैं। अनेक नए बिम्ब हम उनके यहाँ देखते हैं। बाजार होते हुए समय और निष्करुण होती सत्ता के बारीक से बारीक गठजोड़ की खबर वे हमें देते हैं। हमेशा कम बोलने वाली उनकी कविता अपनी चुप्पी में भी बेहद मुखर होती है और अनेक वाचाल कवियों के समक्ष एक चुनौती पेश करती है। इसी संग्रह में एक 'पड़ोस' को लेकर ही उनकी बहुमुखी कल्पना बेहद सक्रिय हो उठी है। उसकी अनेक रंगतें और अर्थच्छायाएँ कई-कई कविताओं में दिखती हैं। उन्हें चंद्रमा पड़ोसी की तरह दिखता है तो जीवन घर से ज्यादा पड़ोस में अनुभव होता है। अकेलापन इसलिए महसूस होता है कि कवि स्वयं के पड़ोस में नहीं रहा। पड़ोस में नया-नया और पृथ्वी के पड़ोस में होना, स्थगित मृत्यु-जैसे जीवन के पड़ोस में आ धमकने से कितना भिन्न है, यह शुक्ल की कविताएँ बताती हैं। चुप रहने में भी जीवन की उम्मीद-भरी धड़कन सुन पड़ती है तो रजा के चित्रों को देखना सूर्यवृत्त को सुबह-सुबह खिलते हुए देखना है। छत्तीसगढ़ के विभाजन ने भी यहाँ कई कविताएँ दी हैं। शुक्ल के यहाँ विस्थापन के कई कचोटभरे बिम्ब हैं। अक्सर राजनैतिक विभाजन को स्वीकार न करने वाला कवि मन यहाँ मौजूद है। यह सुसंयोग ही है कि एक तरफ कवि 63 का हो रहा है और दूसरी ओर छत्तीसगढ़ राज्य बन रहा है। राजिम के आठवीं शती के मंदिर में तो माथा टेकने और चरण स्पर्श से घिस कर चिकनी और सपाट हो चुकी प्रतिमा के पैरों की उँगलियों की वजह में मन ही मन का चरण स्पर्श और दूर से मत्था टेकना भी यह शामिल कर लेता है।
पूरे जीवन की बातें
विनोद कुमार शुक्ल हिंदी कविता में एक चुनौती की तरह लिए जाते रहे हैं चाहे कविता हो, कहानी या उपन्यास, उनके कहने का ढंग, उनकी रचना का तरीका, उनके सोचने समझने का अंदाज ए बयां; अन्य लेखकों से बहुत अलग है । वे, महफूम कैसा भी हो, कथ्य कैसा भी हो, अपनी भाषा, अपने मुहावरे, अपनी शैली, अपने अंदाज ए बयां की धुरी पर जैसे घूमते हैं और फिर अपनी अभिव्यक्ति से स्वयं इतने मोहाविष्ट हो जाते हैं कि परत दर परत जैसे प्रयोग की नई गलियों से गुजरते हुए वे पाठकों को भी रोमांच का अनुभव कराते हैं और स्वयं तो करते ही हैं।
वे किसी ऐसे कथाकार कवि की तरह नहीं हैं कि जिन्हें आप पल्लवग्राहिता के साथ पढ़ते हुए वह क्या कहना चाहते हैं इस बात को आसानी से जान सकें। इसके लिए आपको अभिव्यक्ति के लिए प्रयत्नशील उनकी रचनात्मक फितरत, उनकी सलंग्नता, कविताई से उनकी वाबस्तगी और कविता में कितना कुछ निरंतर नया किया जा सकता है जिससे कि जीवन की बातें पूरे जीवन की बातें चंद लफ्जों में उजागर हो सके, से अवगत होना होगा।
`एक पूर्व में बहुत से पूर्व` की कविता पढ़ता हूं जिसका शीर्षक के `पूरे जीवन की बातें` में वे लिखते हैं:...
पूरे जीवन की बातें
केवल दस मिनट में खत्म हुई
इसके बाद चुप हो गए
पांच मिनट उसने बात की
पांच मिनट मैं
इसके बाद
उसकी याद के कैदखाने में
हमेशा के लिए बंद हो गया
कहने के लिए ये बहुत सरल सहज पंक्तियां हैं । यहां कोई शब्द आडंबर नहीं है। कोई भी शब्द तत्सम की कोख से उद्धृत नहीं है। फिर भी अपने अर्थ में नया-नया सा है, अपने डिक्शन में नया-नया सा है, पूरे जीवन को केवल कुछ मिनट में जता देना और फिर चुप हो जाना और स्मृति के कैदखाने में बंद हो जाना कितना हमें अवाक कर देता है कि अब इसके बाद क्या ही हो सकता है! जैसे सारा चैप्टर पूरे जीवन का 2 मिनट में कोई क्लोज कर दे। पूरी फाइल बंद कर दे और बस दाखिल दफ्तर। जीवन और कविता का क्या यही निहितार्थ है!
ऐसी एक दूसरी छोटी सी कविता है : `यह कैसा याद करना` । इसकी पंक्तियां हैं :
यह कैसा याद करना
और कितने अकेले याद करना
किसी को नहीं मालूम
जिसे याद करता हूं
उसे भी नहीं
अब इस अंदाज़ ए बयां का भी भला क्या कहना! क्या इसकी व्याख्या की दरकार है ? यह तो गूंगे का गुड़ है। खाने वाले को स्वाद है पर उसे स्वाद का बखान करना नहीं आता। इस कविता का भी भला क्या अर्थ हो सकता है कि जिसे याद किया जा रहा है उसे पता नहीं किस तरह से याद किया जा रहा है , उसे यह भी नहीं पता पूरी तरह से डिटैच होते हुए भी कि जिसे याद किया जा रहा है वह याद करने वाले के जीवन से कितना अटैच है यह महत्वपूर्ण है। और ऐसा बहुधा होता है और इस बहुधा होते हुए कृत्य को हर कोई लक्ष्य नहीं कर पाता। कोई कोई कर पाता है जैसे विनोद कुमार शुक्ल।
एक और कविता है : `छोटी सी खुशी जो मुझे मिलती है`...
छोटी सी खुशी
जो मुझे मिलती है
लगता है मेरी अमीरी है
इसे सबको लुटा दूं
या जमा कर दूं पत्नी के पास
थोड़ा-थोड़ा जेब खर्च के लिए
उसी से खुशी मांग लूंगा।
अमीरी का जो रिश्ता पूंजी और धन दौलत से बन गया है उसके विरुद्ध यह कविता एक मुनादी सी करती जान पड़ती है । खुशियों की मुनादी करती अमीरी उन छोटी-छोटी खुशियों में है जिसे हम नजरअंदाज करते हुए धन दौलत के पीछे भाग रहे हैं। हर कोई भाग रहा है तमाम बेचैनियों और उद्विग्नताओं को ओढ़े हुए । बस भाग रहा है जैसे कि खुशियों के खजाने की चाबी उसे मिलने जा रही हो। लेकिन वह छोटी-छोटी खुशी जिसमें कवि अपनी अमीरी तलाश लेता है कि वह फिल्म की लाइन होठों पर बर्बस आ जाती है : हमारे होठों पर मांगी हुई हंसी तो नहीं । अपनी कमाई हुई खुशी ।
--जीवन को देखने का यह भी ढंग है एक कवि का । विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवि का। ऐसा कवि हिंदी के संसार में शायद कोई दूसरा न हो जो भाषा और अभिव्यक्तियों से खेलता हुआ नए अर्थ के इलाकों में प्रवेश करता है और दिल में जगह बना लेता है।
एक और कविता है इस संग्रह की : एक अच्छी घटना:
एक अच्छी घटना
तुम घटना में रहना
बल्कि घट जाना
बार-बार घाट जाना
प्रत्येक मनुष्य का जीवन
हर क्षण अच्छा मुहूर्त है
सुख की घटना के लिए
थोड़े से शब्दों में कवि जीवन के हर क्षण को एक मुहूर्त में बदलने का आकांक्षी है क्योंकि जो क्षण आने वाला है वही शायद सुखाकर्षण है , किसी अच्छी घटना में ही सुख है और जिस घटना में सुख है उसका घट जाना ही अभीष्ट है। हर क्षण किसी संगत घटना में तब्दील हो रहा है इससे अच्छा मुहूर्त भला क्या हो सकता है । यह छोटी सी कविता ऐसा एक बड़ा संदेश देती है और यह संदेश विनोद कुमार शुक्ल के अलावा और भला कौन दे सकता है !
एक और कविता विनोद कुमार शुक्ल जी की है
`अपनी भाषा में शपथ लेता हूं ` :....
अपनी भाषा में शपथ लेता हूं
कि मैं किसी भी भाषा का अपमान नहीं करूंगा
और मेरी मातृभाषा
हर जन्म में बदलती रहे
इसके लिए मैं बार-बार जन्म लेता रहूं
यह मैं जीव जगत से कहता हूं
चिड़ियों पशुओं कीट पतंग से भी
भाषा को इस उदात्तता के साथ ग्रहण करना कि अगर बदलती हुई मातृभाषाओं के साथ जन्म बदलते रहे तो कोई हर्ज नहीं। कम से कम इससे किसी गैर की मातृभाषा का अपमान तो नहीं होगा। जीवन के लिए, अपनी भाषा के लिए यह कितनी अनूठी भावना है एक कवि के रूप में विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवि की।
और अंत में जिन दो पंक्तियों की कविता से इस संग्रह की शुरुआत होती है, वे दो पंक्तियां जैसे आते हुए समय का भविष्यफल हैं । जैसे कैलाश वाजपेयी अपने शब्दों में कह रहे हों : भविष्य घट रहा है । विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं:....
कटे हुए पेड़ के ठूंठ
जंगल काटने के कदम है
यह उनकी कविताओं की मात्र समीक्षा नहीं है बल्कि कुछ कविताओं के हवाले से इस कवि सुदूर दृष्टि में प्रवेश करने की कोशिश है । उनकी कविताओं में वह छत्तीसगढ़िया व्यक्ति भी है जो मनुष्यता की पायदान से निचले स्तर पर जीता हुआ भी स्वाभिमान से भरा हुआ है । इसके बारे में लिखते हुए कवि बहुत उदास होता है जब वह जंगल की याद करता है तो उसे आदिवासी याद आते हैं । जब वह कहता है किसी दिन जंगल बहुत घना था। आदिवासी नीचे धूप मुश्किल थी। जंगल का छप्पर था जिससे छानकर दिन रहता । पर धाम नहीं एक-एक पेड़ से ऊंचा तना हुआ जंगल छत्ता था जंगल की छाया को दम लगाकर बेच दिया आदिवासी इस वर्ष ( पृष्ठ 38)।
उनका यह कहना जैसे दहशत सा पैदा करता है कि `जंगल में एक पेड़ फिर एक पेड़ कटता है
और शहर चुपचाप जंगल की तरफ
एक कदम फिर एक कदम बढ़ता है
शहर एक जंगलखोर जानवर है
शहर जंगलों पर आक्रमण करता है
कि एक जंगल एक पेड़ भर रह जाए
और जंगल की सभी चिड़िया भी एक पेड़ भर रह जाएं
या एक पेड़ भर भी जंगल में न रहे
और चिड़िया घर के पिंजरे भर में रहे।
...शायद कवि के इस अफसोस का, इस क्षोभ का कोई आश्वस्तिदायी उत्तर नहीं है।
हिंदी कविता में आदिवासी विमर्श जोरों पर है । बहुत सारे आदिवासी कवि छीने जा रहे मूलभूत अधिकारों को लेकर अपनी कविताओं में सन्नद्ध हैं । एक ऐसी कविता इस संग्रह में है :
पटवारी ने कहा
पेड़ तुम्हारा नहीं
जंगल तुम्हारा नहीं
जंगल के ऊपर का आकाश भी नहीं
तुम्हारा है इसको सिद्ध करने
तुमको एक तारा तोड़कर लाना होगा ।(पृष्ठ 32 )
कितनी मजबूरी है आदिवासियों के सामने कि वे राजपथ पर भी नाचने के लिए ले जाए जा सकते हैं जैसे उनके नृत्य उनके अस्तित्व का गौरवपूर्ण प्रदर्शन हो । विनोद कुमार शुक्ल की कविता कहती है:
`आदिवासी नाचते दिखते नहीं
नचाए जाते दिखते हैं
जो उनके घर है
उसमें वह रहते नहीं
वे दिखाने के घर हैं
उनका जो चूल्हा जल रहा है
यह उन्होंने नहीं जलाया
जलता हुआ दिखाने का है
तब लगता है कि जैसे एक भरी पूरी मनुष्यता राजपथों पर प्रदर्शन के लिए ही बची हो। तब उनकी कविता भले ही रूपवादी सौंदर्यबोध से ताल्लुक रखती हो किन्तु अपने कवि कर्तव्य से विमुख नहीं दिखती। अपने नवीनतम कविता संसार में ही नहीं, 60 के दौर की कविताओं में भी एक जगह उनका यह लिखना जताता है कि किस तरफ हैं आम जनता के या रईसों के --
रईसों के चेहरे पर
उठी हुई ऊँची नाक
और कीमती सेंट।
खुश-बू मैं नहीं जानता
दु:ख जानता हूँ (केवल जड़े है, पृष्ठ 123)
इसी कालखंड की एक और कविता देखें और इसका मार्मिक समाहार --
मैं अपने घर में तटस्थ
मेरी दृष्टि बरसाती कोट ओढ़ कर
देखती है संघर्ष की बाढ़
चारों तरफ ---
कीचड़ में व्यस्त सड़क
टूटते वृक्ष
भीगते हुए खड़े घर ।
इन सबसे कितना ओछा है
आंखों का डबडबा जाना
मेरा टूटना
और दृष्टि का भीग जाना । (केवल जड़े हैं, पृष्ठ 19)
यह है कवि का सरोकार जिसकी दृष्टि हताशा से बैठे हुए आदमी पर पड़ती है। वह उसकी हताशा के पक्ष में खड़ा मिलता है। उसके साथ साथ चलने को समझना चाहता है। उस टूटे थके हारे आदमी के साथ कुछ क्षण बॉंटना चाहता है। यह वह कवि है जो कहता है जो मेरे घर नहीं आएंगे, उनके घर मैं जाऊँगा।
हिंदी समाज की यह प्रवृत्ति बनती जा रही है कि जब कोई कवि स्वांत:सुखाय लिखता है और अपने महाकाव्य में किसी धीरोदात्त को प्रतिष्ठित करता है तो उस पर आभिजात्य का आरोप लगाता है, कोई जनआंदोलनों के लिए परचम उठाने वाली कविताएं लिखता है तो उस पर सतही बयानबाजी का आरोप लगाया जाता है। यही ज्ञानपीठ पुरस्कार जब किसी रूपवादी कवि को मिलता है तो उसे बख्श दिया जाता है उससे नहीं पूछा जाता कि उसने भारत की ज्वलंत समस्याओं पर कितना लिखा है, यही जब विनोद कुमार शुक्ल जैसे नवाचार और नई नई प्रतीतियों से भरे कवि को मिलता है तो उनके बारे में पूछा जाता है कि नक्सल और बस्तर के आदिवासियों को लेकर उन्होंने क्या लिखा है। यह कविता को निरे राजनीतिक एजेंडे से परिचालित करने की कोशिश है। ऐसा नहीं कि कवि का कोई पक्ष नहीं होता, या उसकी कोई राजनीति नहीं होती । किन्तु कविता किसी राजनीतिक या सांप्रदायिक मतवाद से प्रेरित हो तो उसका उद्देश्य सीमित हो उठता है।
विनोद कुमार शुक्ल ने कविता कला की अपनी इसी आभा में इस संसार को देखा और सिरजा है, आदिवासी व नक्सल समाज को देखा है, कटते हुए जंगलों को देखा है तथा आदिवासियों को राजपथ पर प्रदर्शन का सामान बनते हुए भी। वे इसी कचोट और क्षोभ के कवि हैं। लेकिन यह एक कवि के बूते का नहीं है कि वह अकेले सब कुछ कह दे। सदियों से चली आ रही कवि परंपरा में ऐसे कवि आते रहते हैं जो इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं तथा अपने समय के सत्य और कथ्य को अपनी अपनी कलाओं में अभिव्यक्त करते हैं। विनोद कुमार शुक्ल अपनी औपन्यासिक व काव्य कला दोनों में अलग दिखते हैं तथा उनकी भाषा व शिल्प हर बार नए नए रूपों में खुल कर --खिल कर प्रकट होते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं सरल नहीं हैं। यह जानता हूं वे कविता के स्थापत्य में जटिल अर्थ उपार्जित करने वाली कविताएं हैं। इनमें सहज कविता की खिड़कियों और दरवाजे में प्रवेश कर लेने का दुस्साहस करने वाला हर पाठक प्रवेश नहीं कर सकता । लेकिन अगर भाषा का आनंद उठाना हो, मुहावरे का आनंद उठाना हो, भाषा के कितने स्तर होते हैं उनमें प्रवेश करते हुए मनुष्य की पीड़ा उसकी खुशी उसके व्यवहार को परखना हो तो शायद ये कविताएं मनुष्य की छोटी-छोटी इच्छाओं खुशियों, पीड़ाओं, उसके व्यवहारों, आचरणों और सत्ता और व्यवस्था के बारीक से बारीक अहंकार और कारगुजारियों का प्रतिफल हैं।
कुछ कविताएं कथ्य पर आधारित होती हैं, कुछ दृश्य पर आधारित होती हैं। कुछ अनुभव पर आधारित होती हैं, भोगे और भुगते हुए क्षणों पर आधारित होती हैं, मान और अपमान पर आधारित होती हैं, पर पीड़ा पर आधारित होती हैं। आत्मकथन पर आधारित होती हैं। कवि अपनी कविता में किसी भी टूल, किसी भी प्रविधि का अनुगमन कर सकता है। उसकी कविता वहीं खत्म नहीं होती जहां उस कविता की पंक्तियां। सच को उपदेश करार देने से सच का प्रभाव, उसकी अहमियत कम नहीं होती। सत्य है तभी हवा चल रही है । सत्य है तभी पृथ्वी पर पृथ्वी बची हुई है। सत्य है तभी हवा में प्राण वायु बची है और जब कवि कहता है सच कहना कभी उपदेश नहीं होता , उपदेश कहकर सच को छोटा किया जाने लगा है; तो लगता है हम सच्चाइयों के चिथड़े उड़ते हुए देखने के अभ्यस्त हो चले हैं।
कवि सच्चाई पर पड़ी धूल को हटाता है, वही बताता है कि जिसे तुम उपदेश कहकर नगण्य कह रहे हो वही सच है। इस सच का सामना करो। उपदेश कहकर उससे मुंह मत मोड़ो। क्योंकि सभी कुछ सत्य में प्रतिष्ठित है अन्यत्र कुछ भी नहीं। विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं इसी सत्य का संधान करने वाली कविताएं हैं जो उपदेश की तरह नहीं बरसती बल्कि अनुभूति की बारिश में भिगोती हुई हमें संवेदना के नए स्थापत्य में ले जाती हैं । फिर भी ये कविताएं कविताएं नहीं, गुफ्तगू का हिस्सा लगती हैं। कभी-कभी आत्मालाप लगती हैं और आत्मालाप होते हुए भी सार्वजनिक अनुभूति का अहसास करा रही होती हैं। एक कवि की आत्मसंभवा अभिव्यक्ति भी इस समय का दुर्निवार सच हो सकती है जो विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में अंत तक कायम रही।
कवि के सरोकार बताते हैं कि वह ऐसे फीके रंग का हिमायती है जिस पर समय की मार पड़ी है। 'मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया'- 'बाहर जाकर रोजी कमाते तथा केवल किसी बोली और भाषा विशेष से पहचान लिए जाने का खतरा उठाते बिहारियों की तरह ही कवि को छत्तीसगढ़ियों के भी हालात लगते हैं। वह चिंतित है कि एक भाषा में 'बचाओ' दूसरे प्रदेश की भाषा में 'जान से मारे जाने' का कारण बन जाता है और एक ही प्रांत में होना उस प्रात का बदी जैसा बन जाना, भले, नए राज्य बनने से देश के स्वतंत्र होने जैसी खुशी होती हो। कहाँ रहे वे नागरिक जिन्हें वह देशवासी कह कर पुकारे। बिहारी हो या छत्तीसगढ़ी, उसका स्थायी पता उससे खो गया है। वह जैसे कमाने-खाने के लिए भागती हुई प्रजातियों में बदल गया है। इस तरह शुक्ल की कविता निस्संदेह परदुखकातर है। वह आदिवासियों को उनके जन्मजात अधिकारों से बेदखल किये जाने का शोक मनाती है तो उन्हें सभ्यता के जगमगाते हुए मंच पर बसाने के पीछे की हिंस्र मानसिकता का खुलासा भी करती है। कहना यह कि शुक्ल की कविता उन आवाज़ों को अनसुना नहीं करती जो सताई हुई कौमों की कराह से आती हैं तथा अपनी कलात्मक जिद में यह भूल नहीं जाती कि मनुष्य का जन्म किसी भी कविता के जन्म से बड़ा है। भले ही, कविता ही मनुष्य को बड़ा बनाती हो।
विनोद कुमार शुक्ल का हमारे परिदृश्य में न होना हिंदी की ही नहीं,आधुनिकता से लैस संवेदना के एक बड़े लेखक का अवसान है।
अमर उजाला एप इंस्टॉल कर रजिस्टर करें और 100 कॉइन्स पाएं
केवल नए रजिस्ट्रेशन पर
बेहतर अनुभव के लिए
4.3
ब्राउज़र में ही
अब मिलेगी लेटेस्ट, ट्रेंडिंग और ब्रेकिंग न्यूज आपके व्हाट्सएप पर
Disclaimer
हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर और व्यक्तिगत अनुभव प्रदान कर सकें और लक्षित विज्ञापन पेश कर सकें। अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।
कमेंट
कमेंट X