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Gulzar Ghazal: रुके-रुके से क़दम रुक के बार बार चले

gulzar ghazal ruke ruke se qadam ruk ke baar baar chale
                
                                                         
                            

रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले
क़रार दे के तिरे दर से बे-क़रार चले 

उठाए फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर
चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले

न जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी थी
नज़र में धूल जिगर में लिए ग़ुबार चले

सहर न आई कई बार नींद से जागे
थी रात रात की ये ज़िंदगी गुज़ार चले

मिली है शम्अ' से ये रस्म-ए-आशिक़ी हम को
गुनाह हाथ पे ले कर गुनाहगार चले

2 वर्ष पहले

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