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नासिर काज़मी: वो इस अदा से जो आए तो क्यूँ भला न लगे

nasir kazmi famous ghazal wo is ada se jo aaye toh kyun bhala na lage
                
                                                         
                            


वो इस अदा से जो आए तो क्यूँ भला न लगे
हज़ार बार मिलो फिर भी आश्ना न लगे

कभी वो ख़ास ‘इनायत कि सौ गुमाँ गुज़रे
कभी वो तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल कि महरमाना लगे

वो सीधी-सादी अदाएँ कि बिजलियाँ बरसें
वो दिल-बराना मुरव्वत कि 'आशिक़ाना लगे

दिखाऊँ दाग़-ए-मोहब्बत जो नागवार न हो
सुनाऊँ क़िस्सा-ए-फ़ुर्क़त अगर बुरा न लगे

बहुत ही सादा है तू और ज़माना है 'अय्यार
ख़ुदा करे कि तुझे शहर की हवा न लगे

बुझा न दें ये मुसलसल उदासियाँ दिल को
वो बात कर कि तबी'अत को ताज़ियाना लगे

जो घर उजड़ गए उन का न रंज कर प्यारे
वो चारा कर कि ये गुलशन उजाड़ सा न लगे

इ'ताब-ए-अहल-ए-जहाँ सब भुला दिए लेकिन
वो ज़ख़्म याद हैं अब तक जो ग़ाएबाना लगे

वो रंग दिल को दिए हैं लहू की गर्दिश ने
नज़र उठाऊँ तो दुनिया निगार-ख़ाना लगे

'अजीब ख़्वाब दिखाते हैं ना-ख़ुदा हम को
ग़रज़ ये है कि सफ़ीना किनारे जा न लगे

लिए ही जाती है हर-दम कोई सदा 'नासिर'
ये और बात सुराग़-ए-निशान-ए-पा न लगे

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एक दिन पहले

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