धर्म जार-जार, राष्ट्र सोबार
धर्म एक व्यक्ति का है लेकिन राष्ट्र सबका है।
इन दिनों बांग्लादेश राजनीतिक अस्थिरता से गुज़र रहा है। शेख़ हसीना अपदस्थ हो चुकी हैं। छात्र आंदोलन से निकली बात ने धार्मिक हिंसा का रूप ले लिया। सोशल मीडिया भी हमेशा की तरह बंटा हुआ है। कुछ लोगों के ट्वीट बताते हैं कि कैसे बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को पूरी सुरक्षा मुहैया करवाई जा रही है लेकिन लगातार वे वीडियो भी आ रहे हैं जहां इन्हीं अल्पसंख्यकों को उनके दूसरे धर्म का होने के कारण मारा जा रहा है, इसे ठीक करते हुए कहती हूं कि बेरहमी से मारा जा रहा है। दो हिंदू दलितों को मार कर सड़क पर टांग दिया गया और नीचे से लोग यूं गुज़र रहे हैं जैसे वहां रोज़ का मसअला हो। बड़ी संख्या में हिंदू सड़क पर इकट्ठे होकर धार्मिक नारे लगा रहे हैं, असुरक्षा के बीच संभवत: इस यक़ीन के साथ कि ईश्वर सहायता करे। ये 2024 अगस्त का महीना है और ये पहली बार नहीं है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हुए हों। आरक्षण की आग ने उस देश की हमेशा की बीमारी धर्म को भी अपनी चपेट में लिया और मुद्दा आरक्षण से भटक गया।
बांग्लादेश के इतिहास, वहां के नेताओं और अल्पसंख्यकों की स्थिति पर किताब है ‘बीइंग हिंदू इन बांग्लादेश।’ किताब के लेखक दीप हाल्दार और अविषेक विस्वास के परिवार की जड़ें बांग्लादेश से जुड़ी हुई हैं, वहां का इतिहास और क्रूरता की कहानी उनके बुज़ुर्गों से उन तक पहुंची है। बाद में उन्होंने लंबे समय बांग्लादेश में जाकर, रहकर शोध किया, लोगों और नेताओं से मिले, अल्पसंख्यकों की स्थिति को जाना और लिखित में दर्ज किया और लगभग 170 पृष्ठों में निर्मम इतिहास को समेटा है। लोग कहते हैं कि अल्पसंख्यकों की हालत हर देश में एक जैसी होती है लेकिन किताब पढ़कर आप जानेंगे कि बांग्लादेश का इतिहास कुछ और ही कहता है।
ये देश भाषा और उसकी अस्मिता के आधार पर बना था। ये देश बांग्ला के लिए बना था। इसे बनाने वाले कहलाए बंगबंधू - शेख़ मुजिबुर्रहमान (शेख़ हसीना के पिता) - फ़ादर ऑफ़ बांग्लादेश जिन्हें देश अलग होने के चार साल बाद ही परिवार समेत मार दिया गया। दो बेटियां विदेश में थीं इसलिए बच गईं। जिन्हें विदेश जाने से पहले नहीं पता था कि वे आख़िरी बार अपने पूरे परिवार को देख रही हैं। वे लौटीं तो भारत लौटीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी मदद की, वो फिर विदेश लौटीं, आवामी लीग के काम को वहीं से आगे बढ़ाया, विरोधी पार्टी के ख़िलाफ़ सुर तेज किए। फिर शेख़ हसीना ने पिता के सपने को पूरा करने के लिए बांग्लादेश में कदम रखा, जानलेवा हमले झेले और 2009 से 2024 तक टिकी रहीं।
इस बनते-बिगड़ते समय की सारी कहानी किताब में दर्ज है जो नोआखली से शुरु होती है। नोआखली के बारे में कहते हैं कि यहां गांधी जी की बकरी चोरी हो गई थी जिसे पूरा गांव पका कर खा गया था। अब ये बात सच है या मेटाफ़ोर, पता नहीं लेकिन गांधी जी शांति बहाल करने वहां आए थे। किताब के पहले हिस्से में नोआखली 1946 और नोआखली 2021 का इतिहास है। 2021 ने इतिहास को उतनी क्रूरता से तो नहीं दोहराया लेकिन डर को वापस ज़िंदा ज़रूर किया जब मूर्तियां तोड़ी गईं, लोगों को मारा गया और लाशें सड़कों पर बिछ गई थीं। समय के दो अलग हिस्से लेकिन अफ़वाह से शुरु हुए और अल्पसंख्यकों की मौत और दहशत के साथ ख़त्म हुए। या ख़त्म नहीं हुए…
किताब वर्तमान से बात कर इतिहास को पलटती है कि कैसे शेख़ हसीना की पार्टी आवामी लीग को वोट देने के कारण एक डॉक्टर को भरे बाज़ार कलमा पढ़वाया गया, रूपये मांगे गए और पेशाब पीने पर मजबूर किया गया। बांग्लादेश में आवामी लीग की छवि एक धर्म-निरपेक्ष पार्टी की है, मुजिबुर्रहमान ने इसी पार्टी को लेकर 1971 में बांग्ला-अस्मिता के लिए लड़ाई की। 1975 में उनती मृत्यु के बाद विरोधी पार्टियों ने शासन किया। शेख़ हसीना आवामी लीग के एजेंडे के साथ 1996 में लौटीं लेकिन 2001 में खालेदा जिया के आने के बाद ये कुछ हत्याएं सिर्फ़ इसलिए हुईं कि उन्होंने आवामी लीग को वोट दिए। किताब में पूर्णिमा रानी की कहानी है जो चरमपंथियों के निशाने से तो बच गईं लेकिन घटना का घाव ताउम्र उनके जीवन पर है। पूर्णिमा को शेख़ हसीना ने बचाया और पढ़ाया भी।
शेख़ हसीना ने इस्तीफ़ा भले 2024 में दिया हो लेकिन 2022 दिसम्बर में ही बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने दस हज़ार लोगों के साथ विरोध प्रदर्शन कर इस्तीफा मांगा और चुनाव में धांधली पर सवाल उठाए। लेकिन शेख़ हसीना अल्पसंख्यों की संरक्षक के रूप में बनी रहीं। किताब में निर्वासित ब्लॉगर असद नूर का बयान है कि - शेख़ हसीना को बांग्लादेश के अल्पसंख्यक उम्मीद की नज़र से देखते हैं, भले हालात कई जगह बिगड़े। गौरतलब बात यहां ये है कि 2004 में हुए हमले के बाद से हसीना ने चरमपंथियों को भी साधना शुरु कर दिया था। लेखिका तस्लीमा नसरीन कहती हैं कि ख़ालेदा ज़िया ने उनकी किताब को बैन किया लेकिन शेख़ हसीना ने सत्ता में आने के बाद भी वो बैन नहीं हटाया, यानी उनकी राजनीति में बदलाव हो चुके थे।
वह उस राजनीति से समझौता करने लगीं जो उनके पिता ने शुरु की थी ये कहते हुए कि - ये देश ना मुसलमानों का है, ना ही हिंदुओं का, जो इस देश की तरक्की से खुश है, ये देश उसका है, ये देश सभी का है। मुजिबुर्रहमान के लिए बांग्ला उर्दू से पहले थी और वह दिल से करुण व्यक्ति थे। मुक्ति वाहिनी (जो बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए लड़ रही थी) के ख़िलाफ़ लड़ने वाले पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों तक को माफ़ कर उन्होंने बांग्लादेश में जगह दे दी थी। लेकिन शेख़ हसीना का वहां समझौता करना उनकी मजबूरी रही।
किताब में ग़ुलाम आज़ाद जैसे लोगों की कहानी भी है जिन्होंने बांग्लादेश बनने का विद्रोह किया, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज़ोर लगाया। रज़ाकारों का साथ दिया लेकिन अंत में इसी बांग्लादेश में मरे। और उन बच्चों की कहानी भी तो अपने किशोरवय में ही अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत से इतने भरे थे कि उन पर क्रूर हमला किया। ये वो बच्चे थे जो आम तौर पर शांत रहते थे लेकिन उनके भीतर नफ़रत भर कर उन्हें हमलों के लिए तैयार किया गया।
बांग्लादेश अपनी असल पहचान के लिए संघर्षरत ही रहा। वह एक धर्म-निरपेक्ष राज्य के तौर पर बना लेकिन मुजिबुर्रहमान के सामने ही शिक्षा मंत्री ने धार्मिक शिक्षा देने पर ज़ोर दिया। 1975 के बाद तो सेक्युलर शब्द ही खो गया। संविधान में धार्मिक शब्द डाले गए जिन्हें 2009 में शेख़ हसीना ने बदलने का वादा किया लेकिन तब भी राष्ट्र का धर्म इस्लाम ही रहा। उर्दू भाषा जिसके विरोध में बांग्लादेश बना, अब उसे पढ़ाने पर ज़ोर दिया जाने लगा और मदरसों की संख्या भी लगातार बढ़ती गई। फिर भी शेख़ हसीना अल्पसंख्यकों की उम्मीद थीं। हालांकि किताब में लिखा है कि बीएनपी नेता ने कहा कि - सबसे अधिक हिंदू विरोधी काम हसीना की पार्टी ने किए जिसमें से एक वीएनपी एक्ट है जिसमें सरकार आपको राष्ट्र विरोधी जानकर आपकी संपत्ति ज़ब्त कर सकती है। इसके साथ ही आवामी लीग ने कई ऐसी पार्टियों के साथ हाथ मिलाया जो चरमपंथी थे, उनको कई कानून इसी कारण से वापस लेने पड़े जिसमें महिलाओं के लिए विरासत संबंधी कानून भी थे।
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