किसी की आँखों से अपना चेहरा निकालना है
नदी के पानी से ख़ुद को प्यासा निकालना है
उसे कहो तुम कि डोर रिश्तों की सीधी रक्खे
मोहब्बतों की ज़मीं का रक़्बा निकालना है
जो मुस्तहिक़ हो हमारे दिल का क़रीब आए
क़ज़ा से पहले बदन का सदक़ा निकालना है
हटो कि रस्ते निकालने हैं पहाड़ियों से
रुको कि पैरों से एक काँटा निकालना है
तमाम राहों की दोनों जानिब बिछा दो पत्थर
मुसाफ़िरों को सफ़र का ग़ुस्सा निकालना है
इसी ग़रज़ से मैं ख़ुद को अक्सर टटोलता हूँ
कहाँ पे किस का है कितना हिस्सा निकालना है
वो इक ज़माने के बा'द देखेगा रो पड़ेगा
मुझे पुराना बस एक कुर्ता निकालना है
किसी की सिगरेट उसी की साज़िश में जल रही है
नए मकाँ से पुराना हुक़्क़ा निकालना है
~ सलीम सिद्दीक़ी
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