जानते ही नहीं खींचता कौन है
चाह कर भी चरन लौटते ही नहीं
जानते हैं कि पानी नहीं दूर तक
पर अभागे हिरन लौटते ही नहीं !
उस तरफ जो गया फिर नहीं आ सका
यह भ्रमों से भरा एक संकेत है
कुछ बताने लगे सुख बहुत है वहाँ
कुछ बताते रहे रेत ही रेत है
कुछ दिखाई नहीं दे रहा है मगर
मन भ्रमित है नयन लौटते ही नहीं !
एक भटकाव टाला गया देर तक
किंतु कोई कथा कसमसाती रही
दूर उन्मुक्त आकाश को देखकर
मुक्ति का छन्द यह देह गाती रही
लग रहा प्यास ही भाग्य है देह का
नीर लेकर श्रवण लौटते ही नहीं
एक उलझी कहानी सुनाते हुये
हर किसी की नजर डूब कर बह गयी
एक राजा निकलकर बना देवता
एक रानी कपिलवस्तु में रह गयी
जंगलों ने कहानी बदल दी वहाँ
जो गये वे सजन लौटते ही नहीं !
साभार: ज्ञानप्रकाश आकुल की फेसबुक वाल से
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