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आलोक कुमार मिश्रा: ओ मज़दूरन ! अँकुराती है धरती तुम्हारी बिवाई फटी एड़ियों को चूम चूम कर

कविता
                
                                                         
                            ओ मज़दूरन ...
                                                                 
                            
अँकुराती है धरती
तुम्हारी बिवाई फटी एड़ियों को चूम चूम कर।
हँसती है प्रकृति
काम में रत तुम्हें गाते-गुनगुनाते देख सुन कर।

ओ मज़दूरन ...
खुलते हैं पट क्षितिज के
तुम्हारे ही जगने से।
रात के अँधेरों में उतरता है चाँद 
तुम्हारी ही पुतलियों में सोने।

ओ मज़दूरन...
तुम्हारे पसीने से सने गारे से
उठती है सभ्यता की हर एक भीत।
अनगिनत दुर्योगों की बारिश थामती
छतरी है तुम्हारी पीठ।

ओ मज़दूरन ...
फिर क्यों नहीं पहचानती हो ख़ुद को 
अपनी शक्तियों को तुम?
क्यों नहीं कर देतीं अपनी खुरदुरे जादुई स्पर्श से
अपने ही दुखों को गुम?
ओ मज़दूरन ...
ओ मज़दूरन ...।

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18 घंटे पहले

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