ओ मज़दूरन ...
अँकुराती है धरती
तुम्हारी बिवाई फटी एड़ियों को चूम चूम कर।
हँसती है प्रकृति
काम में रत तुम्हें गाते-गुनगुनाते देख सुन कर।
ओ मज़दूरन ...
खुलते हैं पट क्षितिज के
तुम्हारे ही जगने से।
रात के अँधेरों में उतरता है चाँद
तुम्हारी ही पुतलियों में सोने।
ओ मज़दूरन...
तुम्हारे पसीने से सने गारे से
उठती है सभ्यता की हर एक भीत।
अनगिनत दुर्योगों की बारिश थामती
छतरी है तुम्हारी पीठ।
ओ मज़दूरन ...
फिर क्यों नहीं पहचानती हो ख़ुद को
अपनी शक्तियों को तुम?
क्यों नहीं कर देतीं अपनी खुरदुरे जादुई स्पर्श से
अपने ही दुखों को गुम?
ओ मज़दूरन ...
ओ मज़दूरन ...।
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