अपने विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम मातृभाषा है। इसी के जरिये हम अपनी बात को सहजता और सुगमता से दूसरों तक पहुंचा पाते हैं। हिंदी की लोकप्रियता और पाठकों से उसके दिली रिश्तों को देखते हुए उसके प्रचार-प्रसार के लिए अमर उजाला ने ‘हिंदी हैं हम’अभियान की शुरुआत की है। इस कड़ी में साहित्यकारों के लेखकीय अवदानों को अमर उजाला और अमर उजाला काव्य हिंदी हैं हम श्रृंखला के तहत पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा है। हिंदी हैं हम शब्द श्रृंखला में आज का शब्द है- कुड़माई, जिसका अर्थ है- सगाई, शादी से पूर्व रिश्ता पक्का करने के लिए की जाने वाली रस्म। प्रस्तुत है हरप्रीत कौर की कविता: मेरी कविता की लड़की...
मेरी कविता की लड़की से
कहना चाहता हूं
तुम दुनिया की सबसे अच्छी लड़की हो
जैसे ही कहने को होता हूं
वह कहती है
‘मेरी तो कुड़माई हो गई
जा किसी और को कविता में ला’
मैं उसे फिर से कहता हूं
‘नहीं, नहीं कविता में आने से
किसी का कुछ नहीं खोता’
जैसे ही कहने को जाता हूं
वह मेरी कविता से दूर चली जाती है
फिर बरसों-बरस वापिस नहीं आती है।
उसे कहीं जाने की जल्दी है
अचानक मुझसे टकरा गई है
और एकदम हड़बड़ा गई है
मैंने उसकी कोई चोरी पकड़ ली
जिसे कविता में लिख कर
मैं सबको सुना दूंगा
सब जान जाएंगे
कि वह कहां गई थी
मेरे साथ
लंगड़ा शेर, पिच्चो, गीटे, टप्पा खेलोगे?
कह कर मेरे पीछे-पीछे दौड़ने लगती है
जैसे ही मैं जीतने लगता हूं
वह मुझसे हारने लगती है
कहती है -
‘कविता में मुझे रोता देख कर
हारने लगते हो ना तुम’
‘खेल में तुमको जिता कर
हारना चाहती हूं मैं
हमारे गांव में मेहमानों को हराने का रिवाज नहीं
हारना ही है तो जा कहीं और जा कर खेल’
इतनी बड़ी बात कह कर
हंसने लगती है खिलखिला कर
मेरी कविता की लड़की
नींद से उठ कर
बैठ गया हूं
इतनी रात गए
कविता में लाना चाहता हूं उसे
वह है कि अभी सब्जी काट रही है
फिर कपड़े तहाएगी
फिर जाने क्या-क्या करेगी
तब तक तो
सो ही जाऊंगा मैं
कान में पांचवा छेद करवा कर
कह रही है मुझे-
‘वह सामने देखो
मुरकियों वाला गांव
सारी लड़कियों के कान में
पांच-पांच छेद हैं
हे वाहेगुरू
देखा है कोई गांव कहीं लड़कियों के नाम से मशहूर
वहीं से छिदवाए हैं
छब्बी, अक्की, वींटा, राणो, सब ने
तुम्हें तो चिड़ी उड़ कौआ उड़ भी खेलना नहीं आता
भला तुम्हारे कहने से थोड़े उड़ने लगेंगी सारी चीजें
और हां
थोड़े ही आ जाऊंगी तुम्हारी कविता में मैं
‘ठीक वैसी की वैसी
जैसी कि मैं हूं’
खेत में लस्सी पहुंचाने
चली आई है तपती दोपहर
कोई है कि सुन ही नहीं रहा
कि उसके पास लस्सी है
जिससे बुझ सकती है प्यास
ट्यूबवेल की घर्रर-घर्रर में
किसे सुनती है उसकी आवाज
मैं हूं कि चाहता हूं
वह लस्सी रख कर आ जाए वापिस
मेरी कविता में खाली हाथ ....
मेरी कविता की
लड़की को
यह पता है
कि
मुझे सब पता है
मुझे भी यह पता है
कि
उसे सब पता है
पर
कविता से बाहर
हमें एक दूसरे के बारे में
कुछ भी नहीं पता है
साभार - कविताकोश
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2 years ago
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