अपने विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम मातृभाषा है। इसी के जरिये हम अपनी बात को सहजता और सुगमता से दूसरों तक पहुंचा पाते हैं। हिंदी की लोकप्रियता और पाठकों से उसके दिली रिश्तों को देखते हुए उसके प्रचार-प्रसार के लिए अमर उजाला ने ‘हिंदी हैं हम’ अभियान की शुरुआत की है।
इस अभियान के अंतर्गत हम प्रतिदिन हिंदी के मूर्धन्य कवियों से आपका परिचय करवाते हैं। चूंकि साहित्य किसी भी भाषा का सबसे सटीक दस्तावेज है जो सदियों को अपने भीतर समेटे हुए है इसलिए यह परिचय न सिर्फ़ एक कवि बल्कि भाषा की निकटता को भी सुनिश्चित करेगा, ऐसा विश्वास है।
इसके साथ ही अपनी भाषा के शब्दकोश को विस्तार देना स्वयं को समृद्ध करने जैसा है। इसके अंतर्गत आप हमारे द्वारा जानते हैं - आज का शब्द। हिंदी भाषा के एक शब्द से प्रतिदिन आपका परिचय और कवियों ने किस प्रकार उस शब्द का प्रयोग किया है, यह इसमें सम्मिलित है।
आप हमारे साथ इस मुहिम का हिस्सा बनें और भाषा की गरिमा का अनुभव करें। आज हम बात करेंगे समकालीन हिन्दी के चर्चित कवि कुमार अम्बुज की ।
किसी समाज की, किसी विशेष समय की या किसी वर्ग की परिस्थितियों को अभिव्यक्त करना कला के विभिन्न रूपों का कार्य है। कई आवाज़ें होती हैं जिनके स्वर लगातार बढ़ते शोर में सुनाई नहीं देते। स्वतंत्रता के कई स्वप्न होते हैं जिन्हें कई वजहों से दायित्वों के आगे परोस दिया जाता है। कभी नियति, कभी समाज, कभी देह और कभी भावुकता पैरों को जकड़ लेती है।
वर्तमान समय ऐसा समय है जब लोग शहरों की भीड़ में गुम हो रहे हैं, उनका नज़रिया उनके घरों के कमरों जितना सकुंचित होता जा रहा है। ऐसे समय में स्मृतियों, प्रेम, संवेदनाओं, मूल्यों और बुनियादी ख़ुशियों के लिए समय न निकाल पाना हमारे समय की एक बड़ी हार है। ऐसे समय में ऐसे समाज और ऐसे जीवन को जी रहे वर्ग का प्रतिरोध करना बेहद जरूरी है।
कुमार अम्बुज प्रतिरोध के ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविताएं सुगमता से हमारे समाज में हमारे कष्ट भरे जीवन को अभिव्यक्त कर रही हैं। हमारे चारों ओर बिखरी हुई जटिलता और जीने की निर्मम शर्तों को मानकर भी हम संवेदनहीन होकर केवल जीवन जी रहे हैं। ऐसा जीवन जिसमें भीतर ही भीतर बुनियादी सवालों से, विरोधाभासों से लगातार लड़ना है। कुमार अम्बुज की कविताएं ऐसे ही बुनियादी सवालों को, विरोधाभासों को कविताएं की भूमि पर लाकर हमारे समय का सच परिदृश्य कर रही हैं।
कविता - अमीरी रेखा
मनुष्य होने की परंपरा है कि वह किसी कंधे पर सिर रख देता है
और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ
ऐसा होता आया है, बावजूद इसके
कि कई चीजें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं
और कई बार आदमी होने की शुरुआत
एक आधी अधूरी दीवार हो जाने से, पतंगा, ग्वारपाठा
या एक पोखर बन जाने से भी होती है
या जब सब रफ्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरुआत है
बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा विश्वास बाकी रह गया हो
अपनी कविताओं के साथ वर्तमान समय की सच्चाई को पूरी ताकत से दिखाने का प्रयास करते कुमार अम्बुज को पढ़ते हुए उनकी कविता में प्रतिरोध महसूस करना उनकी कविता की सबसे प्रमुख विशेषता है। वे हर तरह से हमारे भीतर बैठी जड़ता को खंडित करते हैं जो समाज ने, जीवित रहने की राजनीति ने, हमारे पुरखों ने हमें विरासत में दी है।
ये खोखली दृष्टि जिसने हमें समाज को, स्त्री-जीवन को, कभी उस तरफ से देखने नहीं दिया जिस तरफ से हम उसे ज्यादा गौर से देख पाते। जीवन की सूक्ष्मता में ख़ुश होते, स्त्रियों की कोमलता से परिचित होते और वे हमें रहस्य-सी नहीं लगतीं। ऐसी खंडित दृष्टि के प्रति मोर्चा खोलती उनकी कविताएं मनुष्यता, शोषण, स्त्री विमर्श की कई नायाब पंक्तियां हमें देती हैं।
कविता - एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
जब ढह रही हों आस्थाएँ
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील
कितने निर्वासित, कितने शरणार्थी,
कितने टूटे हुए दुखों से, कितने गर्वीले
कितने पक्षी, कितने शिकारी
सब करते रहे हैं एक स्त्री की गोद पर भरोसा
जो पराजित हुए उन्हें एक स्त्री के स्पर्श ने ही बना दिया विजेता
जो कहते हैं कि छले गए हम स्त्रियों से
वे छले गए हैं अपनी ही कामनाओं से
अभी सब कुछ गुजर नहीं गया है
यह जो अमृत है यह जो अथाह है
यह जो अलभ्य दिखता है
उसे पा सकने के लिए एक स्त्री की उपस्थिति
उसकी हंसी, उसकी गंध
और उसके उफान पर कीजिए विश्वास
वह सबसे नयी कोंपल है
और वही धूल चट्टानों के बीच दबी हुए एक जीवाश्म की परछाईं।
आज का समय, खंडित दृष्टि, समाज और पुरुष के दुखों का मरहम और जटिलता की मरम्मत की शक्ति प्रेम में है। यह प्रेम का पौध विश्वास के बीज से उपजता है। विश्वास एक स्त्री पर, उसकी कोमलता पर, उसकी उपस्थिति पर, उसकी हंसी पर, उसके दुःखों पर, उसके अंधेरों पर और उसके सपनों पर।
प्रकृति ने सृजन करने की, सुधार करने की शक्ति स्त्री को दी है। वही है जो जीवन को प्रेम से रचती है और जीवन को संवार सकती है।
कविता - खाना बनाती स्त्रियां
जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्हीं दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
कुमार अम्बुज जिनका जन्म 13 अप्रैल, 1957 को गुना (मध्य प्रदेश) में हुआ, विज्ञान से जुड़े होते हुए भी कविता के बुलावे पर कविता की ओर पूरे ध्यान के साथ आए और साहित्य से जुड़े। उनकी कविताओं ने हमेशा ही सोचने के पुराने ढंग से मुक्त करने का प्रयास किया। साथ ही नए और वास्तविक नज़रिए प्रदान किए। किवाड़ (1992), क्रूरता(1996), अनंतिम(1998), अतिक्रमण(2002), अमीरी रेखा कुमार अम्बुज के प्रमुख कविता संग्रह हैं।
कविता - क्रूरता
धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर ज़रूरत न रह जाएगी
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग
पराजित न होने के लिए नहीं
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे
तब आएगी क्रूरता
पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
निरर्थक हो जाएगा विलाप
दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आँसू
पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा
कुमार अम्बुज के कविता संसार में हम बार बार महसूस करते हैं कि दुखों को ख़त्म किया जाना शायद हमारे हाथ में नहीं हैं। लेकिन उनके कारण पहचान कर उनसे प्रतिरोध करना इस बहरूपिये समय में हमारी सबसे बड़ी जीत है। आज के समय का दवाब, थकान, हताशा, पराजय, दुःख सबकुछ जीवन का हिस्सा जरूर हैं लेकिन यही अंतिम नहीं हैं। एक तारा जो हर रोज़ पश्चिम की ओर दरिया में डूबता है वो ही तारा पूर्व के पर्वतों से दोबारा निकल भी आता है।
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3 वर्ष पहले
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